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परिमितता, समदर्शिता तथा सर्वत्र मांगल्य देखने की शुभ दृष्टि आवश्यक है। इस प्रकार चित्त की प्रसन्नता का उपनाम है-समाधि । प्रमाद की जंजीरों को तोड़ने के बाद ही चरण ध्यान समाधि में गतिमान हो सकते हैं। जिस प्रकार धारणा का प्रकर्ष ध्यान है उसी प्रकार ध्यान का प्रकर्ष समाधि है। समाधि की एकाग्रता ध्यान की एकाग्रता से बहुत प्रकृष्ट होती है।
प्रमाद की जंजीरों को तोड़ने हेतु साधक लोगस्स स्तव के माध्यम से अर्हत् स्तुति करता हुआ-'समाहिवरमुत्तमं किंतु'-इस मंत्र से अपने आत्म पौरुष को जागृत करता है। आचार्य मानतुंग ने अर्हत् ऋषभ की स्तुति में कहा-भगवान! आप बुद्ध, शंकर, विधाता और पुरुषोत्तम हैं। अपने इस रहस्य का उद्घाटन करते हुए आचार्य ने कहा-प्रभो! आप बोधिमय हैं इसलिए बुद्ध हैं, सुख देने वाले हैं इसलिए शंकर हैं, मुक्ति विधान के कर्ता हैं इसलिए विधाता हैं और पुरुषों में उत्तम होने से पुरुषोत्तम हैं।१२ ।
निश्चय ही ऐसे निर्मलचेत्ता वीतराग अर्हत भगवन्तों की स्तुति चित्त समाधि का महत्त्वपूर्ण आलंबन है। दसवैकालिक में साधक को सतत जागृति का संबोध देते हुए कहा है-भाव विशुद्धि के जिस उत्कर्ष से पैर बढ़ चले वे न रूके और न अपने पथ से हटे-ऐसा प्रयत्न होना चाहिए। यह प्रयत्न और संकल्प अर्हत् शरण से पुष्ट होता है। अर्हत् वीतराग है इसलिए मंगल है। अर्हत् की शरण परिणाम शुद्धि का कारण है। शुभ अध्यवसाय मंगल है अतएव अर्हतों की शरण भी मंगल है। भाव विशुद्धि और चित्त समाधि की दिशा में अर्हत् शरण शोध यंत्र के समान
___अकाल कितना ही भयंकर क्यों न हो पर नीम का वृक्ष हरा रहता है। इसका कारण है उसकी जड़ें बहुत गहरी होती हैं। वैसे ही भक्त की श्रद्धा यदि गहरी है तो उसकी चित्त की प्रसन्नता को कोई नहीं मिटा सकता। भक्त साधक भगवत् स्तुति को निमित्त बनाकर योग साधना से ऊर्जा को जब सहसार में अवस्थित करने में सफल हो जाता है तब वह अस्तित्व की अनुभूति से भर जाता है। आत्मा और परमात्मा का अभेद-प्रणिधान होते ही शेष रहता है कोरा आनंद, आनंद, आनंद, परमानंद। उत्तम समाधि-एक रहस्य
उत्तम समाधि का तात्पर्य अनिदान कोटि की समाधि से है। चित्त का अशुभ से निवर्त्तन और शुभ में प्रवर्तन होने पर सहज रूप में मेधा की स्फुरणा, शारीरिक स्फुर्ति, मानसिक पवित्रता, आचार शुद्धि, धृति, क्षमा, संतोष, सत्य, आर्जव, मार्दव आदि सद्गुण समाधि के बीज रूप में उर्वर रहते हैं। उत्तम कोटि की समाधि में
२२ / लोगस्स-एक साधना-२