SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 49
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वृत्तियों का परिष्कार हो जाने से सहज प्रसन्नता, आनंद, शांति, वृत्तियों का क्षय, आत्मस्थता तथा अन्तर्ज्ञान का अनावरण भी संभव है। वशिष्ट ऋषि भी श्री राम से कहते हैं-शम, विचार, संतोष और सत्संग-इन चारों का या इनमें से किसी एक का व्यक्ति को सतत् विचार करते रहना चाहिए। जिससे ग्रंथि विच्छेद कर वह दुःखों से मुक्त हो सकता है।१४ ये ग्रंथियां तैजस् कार्मण शरीर में अनंत काल तक पड़ी रहती हैं। क्योंकि इन दोनों शरीरों का संबंध आत्मा के साथ अनादि काल से है-'अनादि संबंधे च' । सोमिल ब्राह्मण की आत्मा में गजसुकुमाल मुनि की आत्मा के प्रति ६६ लाख पूर्व जन्म के वैर की गांठ तभी नष्ट हुई जब उसने गजसुकुमाल मुनि के कपाल पर जलते अंगारे रख दिये। इसी परिप्रेक्ष्य में यह तथ्य स्मरणीय है कि जैन दर्शनानुसार ६६ लाख पूर्व भवों का वैर व संस्कार जागृत हो सकता है, अतएव ग्रंथियों का विमोचन शीघ्रातिशीघ्र कर लेना चाहिए। यह भी समाधि का बहुत बड़ा निमित्त बनता है। जैन दर्शन में ग्रंथि विमोचन के अनेकों उपाय हैं-आलोचना, प्रतिक्रमण, प्रायश्चित, क्षमायाचना, स्वाध्याय, कायोत्सर्ग, ध्यान आदि। यह ग्रंथि विमोचन ही भाव समाधि को उत्पन्न करता है अथवा भाव समाधि ग्रंथि विमोचन में अनन्य सहायक है। इनका परस्पर पौर्वापर्य है। जैन आगमों में चार प्रकार की भाव समाधि प्रज्ञप्त १. ज्ञान समाधि २. दर्शन समाधि ३. चारित्र समाधि ४. तप समाधि भगवान महावीर ने इन चारों को भाव समाधि कहा है। इनको भाव समाधि कहने के अनेको प्रयोजन हैं। श्रुत (आगम) क्यों सीखा जाता है? १. ज्ञान प्राप्ति हेतु २. दर्शन प्राप्ति हेतु ३. चारित्र प्राप्ति हेतु . ४. कदाग्रह निवारण हेतु ५. यथार्थ भावों को जानने हेतु -ज्ञान से हेय और उपादेय का विवेक होता है। -दर्शन से श्रद्धा दृढ़ होती है। -चारित्र से प्रतिरोधात्मक शक्ति विकसित होती है। -कदाग्रह के अन्त से समभाव की शक्ति जागती है। -यथार्थ भावों को जानने से गन्तव्य पथ प्रशस्त होता है। भगवान महावीर ने कहा ज्ञानयोगी ‘अणिस्यिोवस्सिया' होता है अर्थात् वह समाहिवर मुत्तमं दितु-१ / २३
SR No.032419
Book TitleLogassa Ek Sadhna Part 02
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPunyayashashreeji
PublisherAdarsh Sahitya Sangh Prakashan
Publication Year2012
Total Pages190
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size14 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy