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बरड़ियाजी ने माला मंत्र मांगा। मथेरणजी ने समझाया-माला के एक मणके पर
"चन्द्र चन्द्रोति चन्द्रेति, चन्द्र चन्द्रेति शीतले ।
चन्द्र चन्द्र-प्रभा चन्द्र, चन्द्र चन्द्रा वरानने ॥" गाथा बोलें और दूसरे मणके पर जयाचार्य की चौबीसी पर यह गाथा पढ़ें
"लीन पणे तुम ध्यावियां पामै इन्द्रादिक नी ऋद्धि हो। बसि विविध भोग सुख सम्पदा
लहै अमोषही आदि लब्धि हो ॥१४ एक पर यह, एक पर वह। माला प्रारंभ हुई। डोकरा रोज एक माला मनोयोगपूर्वक फेरता। साल भर बीत गया।
वि.सं. १६५६ जेठ शुक्ला ग्यारस की बात है। श्रीचंदजी गधैया साता पूछने आये। बरड़ियाजी ने कहा-“आव भाई श्रीचंद! कियां आयो।"
गधैयाजी ने जेब में से कागज निकाला और कहा-कलकत्ते का कागज है काका-सा
सुनते ही कस्तूरचंदजी का दिल बैठ गया। उन्होंने कलेजे को थाम कर कहा-"भाई! छोरा पर थांरी देणदारी रो कलंक है श्रीचंद!" श्रीचंदजी बोले-काका-सा। अबै देणो कोनी रहयो। बरडियाजी को कानों पर विश्वास नहीं हुआ। वे कहने लगे-तुम मेरे से मजाक करते हो।
गधैयाजी ने कागज पढ़कर सुनाया। पिछले वर्षों का घाटा पूरा कर इस साल अच्छी आमदनी रही। कस्तूरचंदजी का चेहरा खिल गया। उनके मुँह से निकला-"हैं अबै मर ज्यावां तो धोखो कोनी।" तत्काल आवाज दी, सारे परिवार को बुलाया और कहा "चंद्र प्रभु रो शरणों, सब दुःख हरणो" देखो! गधैया आपां रा सेठ हैं आपा हिस्सेदार हां, आ बात भूल ज्याईज्यो। जकै दिन थे आ समझ ल्यो ला म्हे बराबर का साझीदार हां, मान लिज्यो बी दिन पुन पूरा ही गया। जाओ! धरम रो शरणो राखज्यो! सुखी रहीज्यो।" ।
ज्यों ही सब लोग गये, श्रीचंदजी गधैया अभी गली की नुक्कड़ भी पार नहीं कर पाये थे कि पीछे से आवाज आई-सेठा। वे वापस लौटे। देखा, कस्तूरचंदजी बरड़िया धीरे-धीरे गुनगुना रहे थे :
"लीनपणे तुम ध्यावियाँ, पामै इन्द्रादिक नी रीद्धि हो ।
बलि विविध भोग सुख सम्पदा, लहै आमोसही आदि लब्धि हो॥" १५० / लोगस्स-एक साधना-२