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अजित जिनेश्वर आपरो ध्याऊं ध्यान हमेश हो । अशरण शरण तू ही सही, मेटण सकल कलेश हो ॥२/१
युवाचार्य मघवा द्वारा दिया गया यह गुरुमंत्र भंडारीजी जैसे न जाने कितने ही लोगों का त्राण बना होगा ।
२. चौबीसी का एक मंत्र गर्भित पद्य
सरदारशहर के कस्तूरमलजी बरड़िया अपनी चाल के अकेले आदमी थे। यों तो वे छोगजी चतुर्भुजजी के अनुयायी - 'प्रभु पंथी' थे पर श्रीचन्दजी गधैया से उनका घरेलू संबंध था। मुझे नहीं मालूम बरड़िया - गधैया परिवारों के बीच कोई दूर-जदीक का रिश्ता है कि नहीं, पर रिश्ते से भी अधिक परस्परता थी इन दोनों सरदारों की। मान्यता की दृष्टि से दोनों ३६ का अंक । इधर कट्टर 'प्रभुपंथी' तो इधर कट्टर 'तेरापंथी' ।
एक दिन बरड़िया कस्तूरचंदजी ने श्रीचंदजी से कहा - श्रीचंद ! भाई, परिवार. बढ़ गया है, कोई काम धंधा हो तो ध्यान में रखना ।
समय आया गधैयाजी ने योजना बनाई । कलकत्ता नया काम करना तय रहा। उन्होंने बरड़ियाजी से कहा - काका-सा ! नया धंधा करने का मन है । आप कहते थे न उस दिन, अगर मन हो तो वृद्धिचन्द को कलकत्ता भेज दो।
वृद्धिचंदजी बरड़िया कलकत्ता गये । गधैयाजी ने गणेशदास उदयचंद के नाम से नया काम प्रारंभ किया। बरड़ियाजी उसमें एक भागीदार रहे। संयोग ही कहना. चाहिए वि. १६५१-५२-५३ तीन साल लगातार फर्म घाटे में चला। लोगों ने गधैयाजी से कहा-सेठ ! किसको साथ किया है? इन बरड़ियों का पगफेरा ही अच्छा नहीं है । पर गधैया श्रीचंदजी जैसा दिलेर भी मिलने का नहीं । उनके एक रू. में एक पैसा भर का भी फरक नहीं आया । जब किसी अंतरंग आदमी ने यही बात दुहराई तो गधैयाजी बोले- श्रीचंद ने हाथ पकड़कर मझधार में छोड़ना नहीं सीखा, निभाना सीखा है। एक रोटी मुझे मिलेगी तो आधी बरड़ियों को भी मिलेगी ।
यों तीन साल लगातार घाटे पर घाटा कस्तूरचंदजी को घायल कर गया । देनदारी की चिंता में खाना-पीना छूट गया । भीतर ही भीतर घुटते घुटते वे बीमार हो गये । खाट पकड़ ली। गुरासां बनेचंदजी को बुलाया । दिनमान दिखाया । मथेरण गणेशजी ने बातचीत की। कुछ बताओ । किसी तरह चिंता मुक्त होकर समाधि मरण मर सकूं । मथेरण गणेशजी पक्के रंगे हुए तेरापंथी थे । श्रद्धा उनकी नस-नस में रमी हुई थी । यह बात बरड़ियाजी भी जानते थे । गणेशजी ने कहा - 'बरड़ियाजी ! एक 'खिचड़ी' की माला फेरो, आपकी चिंता मिटेगी। दिन फिरेंगे, मेरा अनुभव है आप करो । तेरे-मेरे में मत उलझना ।
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चौबीसी और आचार्य जय / १४६