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गाथा बोलते-बोलते आँख खोल दी। सभी देखते ही रह गये।
उक्त दोनों घटना प्रसंगों का उल्लेख करते हुए मुनिश्री सागरमलजी (श्रमण सागर) ने लिखा है गणेशजी मथेरण के लड़के धनराजजी ने हमें सुनाया-महाराज! जयाचार्य श्री की चौबीसी का एक-एक पद्य मंत्र गर्भित है। निष्कर्ष
अपने भीतर विराजमान प्रभु का दर्शन अर्हतों ने ध्यान की उच्चतम भूमिका पर पहुंचकर ही किया था। वीतराग आत्मा का ध्यान करते-करते व्यक्ति स्वयं भी वीतरागमय बन जाता है। अतएव जयाचार्य ने चौबीसी के माध्यम से आत्मशोधन की संकलिष्ट प्रक्रिया को सहज सरल रूप से हृदयग्राही प्रस्तुति दी है। कृतिकार ने प्रत्येक तीर्थंकर के एक विशिष्ट गुण को आधार बनाकर चौबीस लघु स्तवनों की ऐसी अनूठी रचना का निर्माण किया है जो ज्ञान योग, भक्ति योग, ध्यान योग, भेद विज्ञान, जप, तप, शील, संयम साधना आदि के गूढ़ रहस्यों को एक सहज तरतमता के साथ आराधक के चित्त और मन में एकाकार कर देती है।
वस्तुतः चौबीसी का स्वाध्याय आत्म जिज्ञासु को एक दृष्टि देता है, चिन्तन के नये आयाम देता है, जीने का अवबोध देता है और स्व से सर्वज्ञ तक की पहचान तथा मंजिल प्राप्ति का बोध देता है।
जयाचार्य ने दो चौबीसियों की रचना की एक बड़ी चौबीसी और एक छोटी चौबीसी। बड़ी चौबीसी में उन्होंने तीर्थंकरों के विभिन्न गुणों, अतिशयों एवं जीवन प्रसंगों का वर्णनात्मक विस्तार किया है। छोटी चौबीसी जो चौबीसी के नाम से लोकप्रिय है और अत्यन्त प्रभावी भी है। इस चौबीसी की गहराई में अवगाहन करने पर ऐसा अनुभव होता है कि जयाचार्य एक पहुँचे हुए सिद्ध योगी थे। उनके व्यक्तित्व को पढ़ने से एक स्वप्नाभास से यह अवगति मिलती है कि वे एक निर्मल आत्मा थे। निकट समय में ही मोक्ष लक्ष्मी का वरण करेंगे, इस मध्य चक्रवर्ती व तीर्थंकर भी बनेंगे। ऐसे निर्मलचेता महामना की महाप्रज्ञा को अन्तहीन नमन नमन नमन। सचमुच उनके जीवन के कण-कण में श्रद्धा, भक्ति तथा गुरु चरणों में पूर्ण समर्पण का भाव भरा हुआ है, वह अपने आप में अद्भुत है। उनकी जीवन झांकी को देखने से, पढ़ने से हमारा मन भी श्रद्धा से अभिभूत हो जाता है। संदर्भ १. वीतराग वंदना-पृ./७७ डॉ. मूलचंद सेठिया के लेख से उधृत। २. वही-पृ./६४ ३. वही-पृ./२४४
चौबीसी और आचार्य जय / १५१