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स्तवन आदि से स्तोता भी इसी प्रकार की शक्ति और सामर्थ्य को प्राप्त हो सकता है तथा विघ्न-बाधाएं, रोग-शोक आदि का नाश होना भी संभव है ।
सिद्ध (परमात्मा) होने से पूर्व - चंदेसु निम्मलयरा, आइच्चेसु अहियं पयासयरा, सागरवर गंभीरा-ये उनके लक्षण होते हैं और सिद्ध होते ही उनके ये गुण हो जाते हैं । निष्काम स्तुति से स्तोता यह भावना पुष्ट करता है कि ये गुणत्रिक स्तुति एवं श्रद्धा के निमित्त से मुझे प्राप्त हों । पुनः पुनः जप, स्तुति अथवा भावना आदि करने पर शब्दों के पारस्परिक घर्षण के कारण वातावरण में एक विशेष प्रकार की विद्युत तरंगें उत्पन्न होने लगती हैं तथा साधक की इच्छित भावनाओं को बल मिलने लगता है ।
मंत्र में शब्द होते हैं और शब्दों के घर्षण में सूक्ष्म शक्ति होती है । स्थूल शरीर में कुछ भी शक्ति नहीं है, अपितु हमारे सूक्ष्म शरीर, आत्मा में अनेक प्रकार की शक्तियां विद्यमान हैं, जिनको मंत्र की सूक्ष्म शक्ति से जगा कर हम असाधारण कार्यों का भी संपादन कर सकते हैं ।
अर्हतों को ‘धम्मवर चाउरंत चक्कवट्टी' कहा गया है । अर्हत् अंतर्जगत के चक्रवर्ती होते हैं। जिस प्रकार चक्रवर्ती की बाह्य संपदा अकूत होती है, उसी प्रकार अर्हतों की आंतरिक संपदा, आध्यात्मिक वैभव अकूत एवं अपार होते हैं । अतः आत्म शुद्धि हेतु कृत स्तुतियां जिनमें सांसारिक सुख या लिप्सापूर्ति की कामना नहीं रहती, केवल आत्मा को गुणों से पूर्ण करने की अभ्यर्थना रहती है और यही निष्काम स्तुति का परम लक्ष्य है। कबीरजी ने भी यही कहा है
जब लग भक्ति सकामता, तब लग निर्फल सेव । कहै कबीर बै क्यूं मिले, निहकामी निज देव ॥
अर्थात् भक्ति जब तक सकाम है, भगवान की सारी सेवा तब तक निष्फल ही है । निष्कामी देव से सकामी साधक की भेंट कैसे हो सकती है? कबीरजी का यह भी कहना है
राजा राणा राव रंग, बड़ो जु सुमिरै राम । कहै कबीर सबसे बड़ा, जो सुमिरै निहकाम ॥
अर्थात् मालिक के ध्यान में राजा, रंक का कोई हिसाब नहीं । जो कामना रहित राम का नाम लेता है, वही सबसे बड़ा है । वास्तव में स्तुत्य वे ही हैं - जो सर्वसमर्थ, सर्वव्यापक, लोकातीत, सर्वज्ञ, अमर और विषयातीत हैं। गोस्वामी तुलसीदासजी ने रामचरितमानस में यथार्थ चित्रण किया है
अध्यात्म, स्तवन और भारतीय वाङ्मय - २ / १७