________________
वारि मथे घृत होई, बरू सिकता ते बरू तेल । बिनु हरिभजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल ॥ ४
अर्थात् पानी को मथने से भले ही घी निकल जाए, बालू मिट्टी को मथने से भले ही तेल निकल जाए, किंतु भगवत- स्तुति के बिना कल्याण नहीं हो सकता - यह अकाट्य सिद्धांत है।
स्तुति का माहात्म्य
हमारे भीतर जो सद्गुण विद्यमान हैं, आवश्यकता है उन्हें प्रदीप्त करने के लिए समुचित साधना की जब घर्षण द्वारा लकड़ी या पत्थर से भी ज्योति पैदा हो सकती है, तो क्या साधना और भक्ति के घर्षण से हृदय में ज्ञान की ज्योति नहीं प्रज्ज्वलित हो सकती ? अवश्य हो सकती है।
1
सूर्य की किरणें मिलते ही, लंबी दूरी के बावजूद क्या सूर्यमुखी के फूल खिले बिना रह सकते हैं? क्या सूर्यकांतमणि के नीचे रखे वस्त्र या रुई में सूर्य की किरणें लगते ही आग प्रज्वलित नहीं हो उठती ? ये दोनों तो सजातीय नहीं, परंतु आत्मा और परमात्मा तो सजातीय हैं। अतः आत्मा की परमात्मा से प्रीति सूरजमुखी पुष्पवत होनी चाहिए। जिस प्रकार सूरजमुखी पुष्प का मुख (ऊपर का भाग) सदैव सूर्य की ओर ही रहता है, चाहे सूर्य पूर्व दिशा में हो, चाहे पश्चिम दिशा में, चाहे किरणें तीव्र हों या मंद, चाहे वर्षाकाल हो या शीतकाल, फिर भी वे पुष्प दिग्भ्रम नहीं होते। वे सूर्य की किरणों से प्रगाढ़ प्रीति रखते हैं । जब विवेक व बुद्धिविहीन पुष्प सूर्य की किरणों से इतनी प्रीति निभाते हैं, तब भक्त-साधक, जो चिंतन-मनन की शक्ति से संपन्न है, बुद्धि का स्वामी है, उसे परमात्मा के प्रति कितनी प्रीति निभानी चाहिए? कितना समर्पित होना चाहिए ? समझने की बात है ।
निस्संदेह स्तुति आत्मा को परमात्मा से जोड़ने का एक महान सेतु है । ये स्तुतियां परमानंद प्राप्त कराने वाले अमोघ अस्त्र हैं। इनके मनन, स्वर गुंजन और लयबद्ध पुनरुच्चारण द्वारा ही शक्ति केंद्रों का जागरण व ऊर्जा केंद्रों का सर्जन होता है । अंतःकरण की शुद्धि और कषाय- कल्मषों के बंधन शिथिल पड़ते हैं । अतः स्तुति, वंदना, उपासना, आराधना आदि प्रसंगों के सामूहिक उच्चारण से वातावरण की पवित्रता के साथ भावों में भी उत्कृष्टता आती है और प्रेरणा भी मिलती है । इस दृष्टि से आत्म-साधना की प्रणाली को अनुपादेय करना उचित नहीं है । यदि साधक अंतःकरण में परमात्मा का चिंतन करे, उसमें गहरा अवगाहन करे, आत्म कल्याण के लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित रखे और सदाचार में किसी प्रकार की आंच न आने दे तो निश्चित ही उसका अंतःकरण दिव्यभावों से चमत्कृत हो उठेगा। कबीर १८ / लोगस्स - एक साधना - १