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स्फटिक सिंहासन निर्भयता का प्रतीक है। चौषठ प्रकार के चमर चौसठ कलाओं के प्रतीक हैं। तीन छत्र रत्नत्रय के प्रतीक हैं। देव दुंदुभि धर्म की शरण की प्रतीक है। पुष्पवृष्टि बसंत की शोभा और शांति की प्रतीक है।"
भामंडल शुक्ल लेश्या का प्रतीक है। दिव्यध्वनि उन वचनों की प्रतीक है, जिससे द्वादशांग वाणी का सृजन हुआ। ५. निर्वाण कल्याणक
आयुष्य कर्म पुरा होने पर तीर्थंकर शेष अघाती कर्मों को क्षय कर मोक्ष प्राप्त करते हैं अर्थात् सर्वथा कर्मों से मुक्त हो शाश्वत सुखों को प्राप्त हो जाते हैं। मोक्ष प्राप्ति पर निर्वाण कल्याणक मनाया जाता है।
__ जैन धर्म में प्रत्येक आत्मा को स्वतंत्र माना गया है। वह अपना विकास करके आत्मा से परमात्मा बन जाता है। तीर्थंकर भी अपनी आत्मा का विकास कर परमात्मा बनते हैं। वे कई जन्मों तक आत्म-विकास के लिए सद्गुणों की साधना करते हैं तीर्थंकरत्व प्राप्त कर वे अपना कल्याण करते हैं तथा प्राणीमात्र को कल्याण का उपदेश देते हैं। अन्त में मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं।
सिद्ध भगवन्त निरंजन, निराकार, शिव, मुक्तात्मा, परमात्मा, अजर एवं अमर है। उनकी स्तुति से स्तोता निर्मल, प्रसन्न, स्वस्थ, सरल एवं ऋजुचित्त होता है। अर्हत् त्याग, वैराग्य व संयम साधना की दृष्टि से महान् हैं। उनके गुणों का उत्कीर्तन साधक के अन्तःकरण में आध्यात्मिक बल का संचार करता है। साधक को साधना के उच्च शिखर पर आरोहण करने का मनोबल देता है। इस प्रकार तीर्थंकरों की स्तुति मानव को अपने पौरुष को जागृत करने की प्रेरणा देती है। तीर्थंकर तो साधना मार्ग में प्रकाश स्तंभ है। प्रकाश स्तम्भ जहाज का पथ प्रदर्शन करता है चलने का कार्य तो जहाज का ही है। वैसे ही साधना में गति प्रगति साधक की कार्य क्षमता ही है।
साधक लोगस्स की साधना से अपनी आत्मा का उत्कर्ष करता है। क्योंकि लोगस्स की साधना जैसा कि बताया जा चुका है कि आत्मस्वरूप की प्राप्ति एवं चेतन आत्मा की ही साधना एवं आराधना है। तत्त्व मनीषी आचार्यश्री महाप्रज्ञजी के शब्दों में* ये पुष्प जिनके पल्लवों के भाग नीचे और डंठल ऊपर हैं, मानों कह रहे हैं कि भगवान की शरण
में आने वाला पतित जन भी उर्ध्वमुखी बनकर मुक्ति मंजिल की ऊँचाइयों को पा सकता है।
११८ / लोगस्स-एक साधना-१