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मैंने सुना है, अनुभव किया है स्वतंत्रता की कुंजी मैं स्वयं हूँ मैंने सुना है, अनुभव किया है फूलों की सुगन्ध और कांटों की चूभन स्वयं मैं हूँ मैंने सुना है, अनुभव किया है प्रलय और सृजन स्वयं मैं हूँ मैंने सुना है, अनुभव किया है
सागर की बूँद और सागर मैं स्वयं हूँ॥ जब हम लोगस्स महासूत्र के आभ्यन्तर स्वरूप में गहराई से अवगाहन करते हैं तो प्रारम्भिक अभ्यास में कुछ जिज्ञासाएं मानस पटल को आन्दोलित करती हैं। क्योंकि इसमें अनंत रहस्य छिपे हैं। जिनकी थाह पाना सामान्य साधक के सामर्थ्य से परे है, जैसे• निर्गुण निराकार की स्तुति कैसे हो सकती है?
• क्या वीतराग की स्तुति उन्हें प्रसन्न करने के लिए की जाती है? यदि नहीं : तो लोगस्स में तित्थयरा में पसीयंतु क्यों कहा?
• क्या स्तुति/प्रशंसा सुनकर वे प्रसन्न होते हैं? • क्या 'आरोग्ग बोहिलाभ 'समाहिवरमुत्तमं दिंतु' कहने से वे हमें आरोग्य,
बोधि और समाधि प्रदान करते हैं? • क्या 'सिद्धा सिद्धिं मम दिसंतु' कहने से सिद्ध हमें सिद्धि देते हैं? इत्यादि। तित्थयरा में पसीयंतु
जैन दर्शनानुसार वीतराग प्रभु न किसी पर प्रसन्न होते हैं और न ही रुष्ट। वे निर्मोह हैं, राग-द्वेष से मुक्त हैं तो फिर प्रसन्नता और अप्रसन्नता का तो प्रश्न ही नहीं उठता। खुशी और नाराजगी लाना तो मोहयुक्त आत्मा का लक्षण है। यहाँ 'तित्थयरा में पसीयंतु' कहने का तात्पर्य है कि जिस प्रकार सूर्य की प्रथम किरण से कमल खिल जाता है वैसे ही वीतराग आत्माओं के गुणानुवाद से मुझे आत्मिक आह्वाद प्राप्त हो, मेरे भाव शुद्ध बने, मेरी लेश्या विशुद्ध बने, मेरी प्रसन्नता मुझ में प्रकट हो, मैं शिवपथगामी बनूं-इत्यादि। यही 'तित्थयरा में पसीयंतु' का रहस्य
है।
आरोग्ग बोहिलाभं
स्तोता के द्वारा आरोग्य, बोहि लाभं और श्रेष्ठ समाधि की अभिलाषा करने पर अर्हत् उन्हें ये देते नहीं हैं तो भी भावों की उत्कृष्ट श्रद्धा से इस प्रकार की
लोगस्स स्वरूप मीमांसा / ११६