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तीर्थंकरों की धर्मसभा का आयोजन होता है, उसे समवसरण कहते हैं । * इन्द्र इसकी रचना करता है इसमें आने की किसी को भी रोक-टोक नहीं होती । आबाल-वृद्ध, नर-नारी, देव-दानव, पशु-पक्षी सब आ जा सकते हैं। सबके लिए समुचित व्यवस्था की जाती है। तीर्थंकर के उपदेश को दिव्य ध्वनि कहते हैं । तीर्थंकर के प्रमुख शिष्य गणधर कहलाते हैं । तीर्थंकर के प्रथम प्रवचन में साधु, साध्वी, श्रावक, श्राविका चार तीर्थ की स्थापना होती है और वे भाव तीर्थंकर कहलाने के अधिकारी हो जाते हैं ।
तीर्थंकर की अनेक विशेषताओं के साथ चौबीस अतिशय, पैंतीस वचनातिशय, आठ प्रातिहार्य (देवकृत अतिशय ) होते हैं । कुछ अतिशय केवलज्ञान की प्राप्ति से पूर्व और कुछ केवलज्ञान के साथ प्रकट होते हैं । उनके आगे-आगे धर्मचक्र चलता है । तीर्थंकर के उपदेश अर्द्धमागधी भाषा में होते हैं ।
तीर्थंकरों के अष्ट महाप्रातिहार्य जो केवलज्ञान की प्राप्ति के बाद सदैव उनके साथ ही रहते हैं । ये प्रातिहार्य अरिहंत की पहचान के विलक्षण चिह्न हैं । १. अशोक वृक्ष
२. पुष्प वृष्टि ३. दिव्य ध्वनि
४. चामर
५. सिंहासन
६. भामंडल
७.
८. छत्र
तीर्थंकर अशोक वृक्ष के नीचे स्फटिक सिंहासन पर आसीन होते हैं । उनके ऊपर तीन छत्र तथा पीछे भामंडल * लगाया जाता है । मुख से दिव्य ध्वनि होती है, देव पुष्प वृष्टि करते हैं, चामर ढुलाते हैं तथा दुंदुभि बजाते हैं ।
उपरोक्त प्रातिहार्य तीर्थंकरों के पवित्र आन्तरिक गुणों के प्रतीक के रूप में होते हैं जिनको निम्न रूप में समझा जा सकता है
अशोक वृक्ष शोक मुक्ति का प्रतीक है ।
देवदुन्दुभि
* सौधर्म देव की आज्ञानुसार कुबेर के द्वारा बनाई गई विशेष सभा को 'समवसरण' कहते हैं। यह पृथ्वी से 500 योजन धनुष ऊपर लगता है । इस पर चढ़ने की 20,000 सीढ़ियां होती हैं। देव शक्ति से निर्मित होने के कारण प्रत्येक व्यक्ति को चढ़ने में अन्तमुहूर्त लगता है ।
ऐसी भी मान्यता है कि भामंडल में सात भव दिखते हैं। तीन अतीत के, तीन भविष्य के और एक वर्तमान का ।
लोगस्स स्वरूप मीमांसा / ११७
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