________________
निष्कर्ष
जिस प्रकार सूर्य की किरणों को आत्मसात् करने वाला दर्पण तेजोमय बन जाता है। उसी प्रकार जो ध्यान, स्मरण के माध्यम से परमात्मा की परम ज्योति आत्मा में प्रज्जवलित करता है; वह भी लोकोत्तर तेज निधान बन जाता है। जिस प्रकार दर्पण को चमकाने के लिए सूर्य की किरणें साधन बनती हैं उसी प्रकार आत्मा रूपी दर्पण को चमकाने के लिए अर्थात् अन्तःकरण को ज्योतिर्मान बनाने के लिए वीतराग प्रभु का स्मरण, ध्यान, चिंतन एवं स्तवन भी एक साधन है। आचार्य मानतुंग ने आदिनाथ भगवान की स्तुति में कहा कि जो बुद्धिमान आपके इस स्तोत्र को भक्तिपूर्वक पढ़ता है उसके मदोन्मत्त हाथी, सिंह, अग्नि, सर्प, संग्राम, समुद्र, जलोदर रोग, कारागर-इन आठ कारणों से उत्पन्न होने वाला भय स्वयं ही भयभीत होकर शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है।
संभव है आचार्य मानतुंग ने इन सांकेतिक शब्दों को प्रतीकात्मक शैली में प्रयुक्त किया हो। जैसे अहं रूपी हाथी, क्रोध रूपी अग्नि, मन रूपी सिंह, वासना रूपी सर्प, कषाय रूपी संग्राम, शरीर रूपी कारागार, संसार रूपी समुद्र, जलोदर रोग रूपी भव-भ्रमण रोग-इन सबका अपनयन होने से आत्मा अभय हो मोक्ष रूपी संपत्ति को प्राप्त होता है।
कर्म निर्जरा के साथ प्रासंगिक रूप से होने वाले ये सारे प्रसंग हैं। जब एक आदिनाथ भगवान की स्तुति का इतना महत्त्व है तो 'लोगस्स' में तो चौबीस तीर्थंकर, बीस विहरमान तथा अनंत सिद्धों की स्तुति है। इसकी अपार महिमा का वर्णन किन शब्दों में किया जा सकता है! निष्कर्ष के रूप में इतना ही कहा जा सकता है कि अर्हत् व सिद्धों के गुणगान करने से वे गुण जो हमारे भीतर भी विद्यमान है, धीरे-धीरे प्रकट होने लगते हैं और निष्पत्ति के रूप में एक दिन सिद्धत्त्व साकार हो उठता है। संदर्भ १. पच्चीस बोल, १२वां बोल २. जैन सिद्धान्त दीपिका-१/१५ ३. शांति एवं शक्ति का स्रोत नमस्कार महामंत्र-पृ./१११ ४. अन्तरिक्ष विज्ञान की ताजा उपलब्धि अमर उजाला आगरा के जून १६६५ से प्रकाशित
लेख का सार
पन्नवणा ६. कर्मबंध और मुक्ति की प्रक्रिया-पृ./२६ ७. लोगस्स सूत्र एक दिव्य साधना-पृ./५३ से ५७ ८. भक्तामर-43
*
११० / लोगस्स-एक साधना-१