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भगवती सूत्र
श. २५ : उ. ७ : सू. ५८९-५९७
५८९. प्रशस्त-मन-विनय क्या है ?
प्रशस्त-मन-विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. अपापक- मन को शुभ चिन्तन में प्रवृत्त करना। २. असावद्य - मन को चोरी आदि गर्हित कर्मों में न लगाना। ३. अक्रिय - मन को कायिकी, आधिकरणिकी आदि क्रियाओं में प्रवृत्त न करना । ४. निरूपक्लेश - मन को शोक, चिन्ता आदि में प्रवृत्त न करना । ५. अनास्नवकर - मन को प्राणातिपात आदि पांच आश्रवों प्रवृत्त न करना । ६. अक्षपिकर - मन को प्राणियों को व्यथित करने में न लगाना। ७. अभूताभिशङ्कन - मन को अभयंकर बनाना । यह है प्रशस्त - मन- विनय । ५९०. अप्रशस्त-मन-विनय क्या है ?
अप्रशस्त - मन- विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे
१. पापक २. सावद्य ३. सक्रिय ४. सोपक्लेश ५. ७. भूताभिशङ्कन । यह है अप्रशस्त - मन- विनय । यह है मन विनय । ६९१. वह वचन - विनय क्या है ?
वचन - विनय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- प्रशस्त - वचन - विनय और अप्रशस्त - वचन - विनय । ५९२. प्रशस्त - वचन - विनय क्या है ?
प्रशस्त-वचन-विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. अपापक, २. असावद्य यावत् अभूताभिशंकन (भ. २५/ ५८९) । यह है प्रशस्त-वचन- विनय ।
५९३. अप्रशस्त - वचन-विनय क्या होता है ?
आस्नवकर ६. क्षपिकर
अप्रशस्त-वचन- विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- पापक, सावद्य यावत् भूताभिशङ्कन (भ. २५/५९०) । यह अप्रशस्त - वचन - विनय है। यह है वचन - विनय ।
५९४. काय-विनय क्या है ?
काय-विनय दो प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- प्रशस्त काय-विनय और अप्रशस्त काय-विनय । ५९५. प्रशस्त काय-विनय क्या है ?
प्रशस्त-काय-विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. आयुक्त (संयमपूर्वक) गमन २. आयुक्त स्थान ३. आयुक्त निषीदन ४. आयुक्त त्वग्वर्तन ५. आयुक्त उल्लंघन ६. आयुक्त प्रलंघन ७. आयुक्त सर्वेन्द्रिय-योग- योजना - यह है प्रशस्त काय-विनय । ५९६. अप्रशस्त काय-विनय क्या है ?
अप्रशस्त-काय-विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- अनायुक्त गमन यावत् अनायुक्त सर्वेन्द्रिय-योग-योजना ( भ. २५/ ५९५) । यह है अप्रशस्त काय-विनय । यह है काय- विनय ।
५९७. लोकोपचार - विनय क्या है ?
लोकोपचार - विनय सात प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. अभ्यासवर्तित्व - श्रुत-ग्रहण करने के लिए आचार्य के समीप बठना । २. परच्छन्दानुवर्तित्व - दूसरों के अभिप्राय के अनुसार वर्तन
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