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भगवती सूत्र
४.
करना । ३. कार्यहेतु– 'इसने मुझे ज्ञान कृतप्रतिकृतित्व-प्रत्युपकार की भावना से औषध आदि की गवेषणा करना । ६.
श. २५ : उ. ७ : सू. ५९७-६०४ दिया' – इसलिए उसका विनय करना । विनय करना । ५. आर्त्तगवेषण - रोगी के लिए देशकालज्ञता - अवसर को जानना । ७. सर्वार्थ- अप्रतिलोमता – सब विषयों में अनुकूल आचरण करना । यह है लोकोपचार - विनय । यह है
विनय ।
५९८. वैयावृत्त्य क्या है ?
वैयावृत्त्य दस प्रकार का प्रज्ञप्त वैयावृत्त्य ३. स्थविर का वैयावृत्त्य ४ ६. शैक्ष- नवदीक्षित का वैयावृत्त्य ७.
का वैयावृत्त्य १०. साधर्मिक का वैयावृत्त्य । यह है वैयावृत्त्य ।
५९९. स्वाध्याय क्या है ?
है जैसे - १. आचार्य का वेयावृत्त्य २. उपाध्याय का तपस्वी का वैयावृत्त्य ५. ग्लान - रूग्ण का वैयावृत्त्य कुल का वैयावृत्त्य ८. गण का वैयावृत्त्य ९. संघ
स्वाध्याय पांच प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. वाचना -अध्यापन २. प्रच्छना - संदिग्ध विषयों में प्रश्न करना ३. परिवर्तना - पठित ज्ञान की पुनरावृत्ति करना ४. अनुप्रेक्षा - चिन्तन ५. धर्म- कथा । यह है स्वाध्याय ।
६००. ध्यान क्या है ?
ध्यान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. आर्त्त - ध्यान २. रौद्र - ध्यान, ३. धर्म्य - ध्यान ४. शुक्ल-ध्यान ।
६०१. आर्त्त-ध्यान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. अमनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (अमनोज्ञ विषय) के वियोग की चिन्ता में लीन हो जाना। २. मनोज्ञ संयोग से संयुक्त होने पर उस (मनोज्ञ विषय) के वियोग न होने की चिन्ता में लीन हो जाना। ३. आतंक (सद्योधाती रोग) के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग की चिन्ता में लीन हो जाना । ४. प्रीतिकर काम-भोग के संयोग से संयुक्त होने पर उसके वियोग न होने की चिन्ता में लीन हो जाना ।
६०२. आर्त्त - ध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं, जैसे- १. आक्रन्द करना २. शोक करना ३. आंसू बहाना ४. विलाप करना ।
६०३. रौद्र-ध्यान चार प्रकार का प्रज्ञप्त है, जैसे- १. हिंसानुबन्धी- जिसमें हिंसा का अनुबन्ध (सतत प्रवर्तन) हो, २. मृषानुबन्धी- जिसमें मृषा का अनुबन्ध हो, ३. स्तेयानुबन्धी- जिसमें चोरी का अनुबन्ध हो, ४. संरक्षणानुबन्धी- जिसमें विषय के साधनों के संरक्षण का अनुबन्ध हो ।
६०४. रौद्र-ध्यान के चार लक्षण प्रज्ञप्त हैं, जैसे १. उत्सन्न -दोष - प्रायः हिंसा आदि में प्रवृत्त रहना, २ . बहुल - दोष - हिंसादि की विविध प्रवृत्तियों में संलग्न रहना। ३. अज्ञान - दोषअज्ञानवश हिंसा आदि में प्रवृत्त होना । ४. आमरणान्त - दोष – मरणान्त तक हिंसा आदि करने का अनुताप न होना ।
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