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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ४. म्हां सघलां भायां में ओ पाटवी, रिषभदेवजी रो पाट।
जो घात करूं हिवे एहनी, तो कुल में पड जाय काट।।
५. इणरें चकररत्न उपनों कहें, दीसें छे भागवान।
म्हां सघलां विचें ओ दीपतो, कुल में दीवा समांन।।
इणने स्वयमेव श्री रिषभदेवजी, दीयों वनीता रो राज। इणनें मारेनें राज करूं इहां, ओतो मोटों अकाज।।
७. म्हारों
हिवें
धेष हुतो इण ऊपरें, जब हूं इण ऊपर म्हारों, धेष
करतों थो घात। नही तिलमात।।
८. इसडों मानव इण जगत में, म्हे तों नयणां न दीठों।
सोम निजर सीतल अंग छे, मुझ लागें मीठों।।
९. इसडा नरिंद में मारीयां, बंधे करमां रा जाल।
इण राज काजें इसडों अनर्थ करूं, जीववों किताएक काल।।
१०. इण भरत
पिण म्हें
नेरिद ने मारण तणों, ते तों मुझनें छे नेम। मूठ उपाडी इणनें मारवा, हेठी मेलूं केम।।
११. भाइ अठाणु
संजम पालें ,
म्हारें, त्यां रूडी रीत
छोड दीयों सूं, सारें निज
राज। काज।।
१२. पिण म्हें तो इण राज रें कारणे, मांड्या कजीया ने राड।
वडा भाइ ने मांड्यों म्हें मारवों, मुझनें छे धिकार।।
१३. हूं सुख जाणतों इण राज में, ते सर्व धूर समाण।
अनोपम एक जिन धर्म विना, जीतब अप्रमाण।।
१४. इण संसार असार में, सुख नही मूल लिगार।
तों हिवें राज रमण रिध छोडनें, लेउ संजम भार।।