________________
भरत चरित
७७ ४. हम सब भाइयों में ऋषभदेव के पट्ट का यह प्रमुख उत्तराधिकारी है। यदि मैं इसकी हत्या करता हूं तो कुल में छेद पड़ जाएगा।
५. कहा जा रहा है- इसके यहां चक्ररत्न उत्पन्न हुआ है। लगता है भाग्यशाली है। हमारे कुल में हम सबमें यह दीपक के समान दीप्त हो रहा है।
६. स्वयं ऋषभदेवजी ने इसे विनीता का राज्य दिया था। इसको मारकर मैं यहां राज्य करूं यह तो बड़ा अनर्थ है।
७. जब मैं प्रहार कर रहा था तब इस पर मेरा द्वेष था। अब मेरा इस पर तिल मात्र भी द्वेष नहीं है।
८. मैंने अपनी आंखों से ऐसा अन्य मानव जगत् में नहीं देखा। इसकी दृष्टि सौम्य और अंग शीतल है। मुझे यह मधुर-प्रिय लगता है।
९. ऐसे नरेंद्र को मारने से कर्मों के जाल का बंधन होता है। इस राज्य के लिए मैं ऐसा अनर्थ करूं तो फिर मुझे जीना भी कितने समय तक है?।
१०. अब भरत को मारने का मुझे त्याग है। पर मैंने इस पर प्रहार करने के लिए मुट्ठी उठा ली, इसे नीचे कैसे करूं?।
११. मेरे अट्ठानवे भाई थे। उन्होंने राज्य छोड़ दिया। वे अच्छी तरह से संयम का पालन कर रहे हैं। अपना कार्य सिद्ध कर रहे हैं।
१२. पर मैंने इस राज्य के कारण लड़ाई-झगड़ा लगा दिया। बड़े भाई को मैंने मारना शुरू कर दिया। मुझे धिक्कार है।
१३. मैं इस राज्य में सुख जानता था वह तो धूल के समान है। अनुत्तर जैन धर्म के बिना जीना ही निरर्थक है।
१४. इस असार संसार में किंचित् भी सुख नहीं है। अतः अब राज्य, रमणियां और ऋद्धि को छोड़कर संयम भार गहण करूं।