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हजार वर्ष का काल तो युद्ध में ही गुजरता है । इस लम्बे समय में वे कहां-कहां से गुजरे हैं, उसका विस्तृत विवरण है। और तो क्या चक्रवर्तित्व को प्राप्त करने के लिए वे अपने भाई बाहुबल को ललकारने से भी नहीं चूकते। यद्यपि बाहुबल के साथ किए जाने वाले युद्ध में उनकी जीत नहीं होती, पर युद्ध का जो वर्णन किया गया है वह अत्यंत रोमांचकारी है । वैताढ्यगिरि के उस पार जाने के लिए तामस गुफा से होकर गुजरना तथा आपात चिलातियों-आदिवासियों के साथ युद्ध करना भी अत्यंत रोमांचकारी है। इसी प्रकार गंगा और सिन्धु नदी के पार की विजय यात्रा भी अत्यंत विस्मयकारी है । इस प्रकार छह खंडों को जीतकर जब भरत विनीता में लौटते हैं तो उनका ऐश्वर्य पराकाष्ठा पर पहुंच जाता है। आचार्य भिक्षु ने उस चरम ऐश्वर्य को शब्दों में समेटने का गुरुतर सफल प्रयत्न किया है।
चवदह रत्न तथा नौ-निधान भरत के ऐश्वर्य की झबाकेदार चमक तो है ही पर १६ हजार देवता भी निरंतर उनकी सेवा में तत्पर रहते हैं । ६४ हजार राजेमहाराजे उनके अधीन हैं। उनकी सेना में ८४-८४ लाख हाथी घोड़े और रथ तथा ९६ करोड़ पैदल सैनिक हैं । ७२ हजार नगर, ९६ करोड़ पुर, ४८ हजार पाटण, ३२ हजार जनपद ११ हजार द्रोणामुख, २४ हजार कवड़, २४ हजार मडंब तथा २० हजार सोने-चांदी के खाने उनके अधीन हैं।
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उनके ४२ भौमिक महल हैं। उनमें स्त्री रत्न श्री देवी आदि ६४ हजार रानियों का अंतःपुर रहता है। प्रसंगवश उनके रूप- लावण्य की अनिंद्य चर्चा भी हुई है। एक दासी के बल का वर्णन करते हुए बताया गया है कि वह अपनी चिमटी से हीरे को चूर-चूर कर उनका तिलक करती है । ३२ हजार नर्तक यथावसर उनके सामने नृत्य करते हैं। उनके ३६० चतुर रसोइए हैं। उनके रसोड़े में प्रतिदिन ४ करोड़ मन अन्न पकता है । प्रतिदिन १० लाख मन नमक लगता है।
यह सारा वर्णन तो संकेत मात्र है। अपार वैभव का जो चित्रण किया गया है। वह इस ग्रंथ को पढ़ने से ही ज्ञात हो सकता है। फिर भी ग्रन्थ का मूल लक्ष्य यह है कि भरत उस अथाह ऐश्वर्य में आसक्त नहीं हैं। यद्यपि स्वयं आदिनाथ भगवान् ने भरत की अनासक्ति का रहस्योद्घाटन किया है । पर जब लोगों को उस कथन पर सन्देह हुआ तो भरत ने बड़े ही कौशल से उसका समाधान दिया है। आचार्य भिक्षु ने भी भरत चरित्र की ७४ ढालों में से कम से कम ४२ ढालों में भरत की अनासक्त भावना का भिन्न-भिन्न शब्द बिम्बों में इस प्रकार अनावृत चित्रण किया है