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(vii)
एहवो पुन तणो छ प्रताप ए, त्याने पिण जाणे छे भरतजी विलाप ए। ज्यांने पिण छोड देसी तत्काल ए, मोख जासी सुध संजम पाल ए।
यह सब पुण्य का प्रताप है। भरतजी इसे भी विलाप जानते हैं। वे इसका भी तत्काल त्याग कर शुद्ध संयम का पालन कर मोक्ष जाएंगे। (ढाल २९।२९)
सांसारिक सुखों की नश्वरता का भरत चरित्र बहुत ही सम्यग् रूप से निरूपण हुआ है। वहां कहा गया है जो पुरुष-पुण्य की कामना करता है, वह कामभोगों की कामना करता है। जिसने संसार को सारपूर्ण समझा है उसके मिथ्यात्व का महारोग है (ढाल १-२४)
जब आदर्श भवन में भरत को केवल ज्ञान होता है और वे वस्त्राभूषणों का त्याग करते हैं उसका भी बड़ा सजीव वर्णन किया गया है। उस समय अंतःपुर में किस तरह विलाप का वातावरण बनता है तथा भरतजी उसकी किस प्रकार उपेक्षा करते हैं वहां भी अनासक्त भावना का सुन्दर निदर्शन हुआ है। और जब ७०वीं ढाल में वे राजा-महाराजाओं को भौतिक सुखों की क्षणभंगुरता तथा मोक्ष सुखों का परिचय देते हैं, वह तो बहुत ही वैराग्यपूर्ण है। वे कहते हैं
तिहां अजरामर सुखसासता, सदा अविचल रहणो तिण ठाम ।
तीन काल रा सुख देवता तणां, त्यांसूं अनंत गुणा छे ताम। मोक्ष के सुख अजर-अमर और शाश्वत हैं। देवताओं के तीन काल के सुखों से भी वे अनंत गुण अधिक है। उस स्थान में जीव अविचल रहता है।
सचमुच आचार्य भिक्षु की लेखनी का चमत्कार आश्चर्यजनक है। यहां जो थोड़ी चर्चा की गई है वह तो केवल नमूना है। असल में तो भरत चरित्र भोग पर त्याग की विजय की अपूर्व गाथा है। उसे इस ग्रंथ रत्न को पढ़कर ही समझा जा सकता है। वैराग्य रस का इसमें अत्यंत प्रभावकता के साथ मार्मिक वर्णन किया गया है।
आचार्य भिक्षु द्वारा रचित आख्यान साहित्य का प्रथम खंड प्रकाश में आ रहा है। उसका अनुवाद अणुव्रत प्राध्यापक राजस्थानी भाषाविज्ञ मुनिश्री सुखलालजी ने किया है। इसके प्रूफरिडिंग के कार्य में मुनि कीर्तिकुमारजी व मुनि भव्यकुमारजी का भी काफी श्रम लगा है। मैं मंगलकामना करता हूं कि इस कार्य में रत सभी साधु-साध्वियों के कदम निरंतर इस दिशा में उठते रहें।
आचार्य महाश्रमण
लाडनूं २० फरवरी २०११