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भरत चरित
ढाळ : ९
पुत्रों! तुम प्रतिबुद्ध बनो। १. मैंने तुम्हें जो राज्य दिया था उससे तुम्हारा काम सिद्ध नहीं होगा। मैंने तुम्हें वह राज्य नहीं दिया जिससे तुम्हारा काम सिद्ध हो अतः प्रतिबुद्ध बनो।
२. उस राज्य को अपना राज्य मत समझो जो छीना जा सके। इस निस्सार राज्य के लिए बेचारे अनेक जीव व्यर्थ ही परेशान होते हैं।
३. मुक्ति का राज्य अविचल है। उसे कोई छीन नहीं सकता। वहां सारे भय भाग जाते हैं। उसके सुख अनुपम हैं।
४. इस थोथे राज्य के लिए भाई-भाई आपस में लड़ पड़ते हैं। लज्जा और शर्म को छोड़कर आपस में कट-मरते हैं।
५. तन, धन और परिवार यहीं के यहीं रह जाएंगे। वे परभव में साथ नहीं आएंगे। उनसे कोई गर्ज नहीं सरती।
६. संचित धन को सगे-स्वजन, भाई, स्त्री-पुत्र आदि छीन सकते हैं पर भगवान् के धर्म को नहीं छीन सकते।
७. जब तक स्वार्थ सिद्ध होता है, तब तक मुंह के सामने हांजी हांजी करते हैं। स्वार्थ सिद्ध हो जाने पर मुंह दीखते ही लड़ पड़ते हैं।
८. इन्द्रिय-विषय एवं कषाय इन आंतरिक स्वामियों को वश करो। तृष्णा के दावानल को बुझाओ। समता-रस को चित्त में रमाओ।
९. हृदय में विमर्श कर देखो। तन, धन और यौवन अशाश्वत हैं, उनमें रंजित मत होओ, जिससे कि तुम शाश्वत सुखों को पा सको।
१०. संसार ऐसा अस्थिर है। यहां कोई चीज स्थिर नहीं दिखाई देती। जो इसमें रंजित हो रहा है उसे वास्तव में तीन बार धिक्कार है।