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भरत चरित
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७. ऋषभदेवजी पहले तीर्थंकर हुए । उनकी शोभा जग भर में फैली। वे धर्म के धोरी - बैल हुए। कर्मों का विनाश कर मुक्त हुए ।
८. भरतजी के आठ पटधर भी कर्म काटकर मुक्ति में गए। उन्होंने भरतजी की तरह आदर्श महल में ध्यानस्थ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया ।
९,१०. उन्होंने अत्यंत धैर्य के साथ अपनी आत्मा के कार्य सिद्ध किए। उनके अलग-अलग नाम इस प्रकार हैं- १ आदित्ययश, २ महायश, ३ अतिबल, ४ महाबल, ५ तत्त्ववीर्य, ६ कर्णवीर्य, ७ दंडवीर्य तथा ८ जलवीर्य ।
११. भरतजी के ये आठों ही पटधर निर्वाण में गए। भरतजी की तरह ही उन्होंने ध्यानस्थ होकर केवलज्ञान प्राप्त किया ।
१२. नौवां पटधर भारीकर्मा हुआ। उसने जैनधर्म को नहीं जाना। उसके मन में बुरा विचार आया। उसने महलों में अवगुण निकाले ।
१३. भरतजी से लेकर सभी नौ पाटों को यही नुकसान हुआ। सबने राज्य छोड़ दिया । इन महलों में ही ऐसी उलटी अक्ल आई।
१४. उन्होंने संतृप्त होकर राज्य नहीं किया । यह इन महलों का ही प्रताप है। सबने साधु का वेष धारण कर लिया यह भी इन महलों का प्रसाद है।
१५. कहीं ये मुझे भी खराब न कर दें ? इसलिए इन्हें शीघ्र गिरा देना चाहिए । यह उलटी अक्ल हृदय में आई । इसलिए उसने महलों को गिरा दिया ।
१६. ये महल तो पुण्यवानों को ही प्राप्य हैं। जिस किसी को ये सहज नहीं मिल सकते। भरतजी ने पर्याप्त पुण्य किया था । इसलिए देवताओं ने उन्हें ये महल बनाकर दिए ।