________________
३७४
भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १४. कहिजें दांण मापों थाने सर्वथा मूंक्यो, गवादि कर मुक्यो छे ताम।
तोला ने माप वधारजों, सगली नगरी में ठाम ठांम।।
१५. किणरें घरे राजा रों परष म जावों, दंड पिण नही लेणों लिगार।
कुदंड पिण लेंणों नही, सर्व नगर में देस मझार।।
१६. जें किणरेंइ माथें रिणों हुवें तो, देजों तुरत चुकाय।
जों घर में न हुवें तेहनें, देजों दुरबार सूं ले जाय।।
१७. आज पेंहली कोइ देंणों म राखो, वनीता नगरी रे मांहि।
जो खावा में न हुवें घर मझे, तो ले जावों दुरबार सूं आय।।
१८. वळे वनीता नगर में धरणों मत पाडों, वळे मत करों कजीया राड।
उसभ किरतब करों मती, इण वनीता नगर मझार।।
१९. घर-घर महोछव हरष सूं मांडो, घर घर बांधो फूलमाल।
घर-घर रंग वधावणा, घर-घर गावो गीत रसाल।।
२०. रंगरली घर-घर माहे कीजो, कोइ मत कीजों सोग लिगार।
महामहोछव बारां बरसां लग, कीजों वनीता नगर मझार।।
२१. इत्यादिक महोछव. विविध प्रकारें, कीजों नगरी में अनेक।
बारे बरसां लग कीजें नवनवा, दिन दिन हरष विशेष।।
२२. इण विध उदघोषणा जाय कीजों, वनीता नगर मझार।
ठांम ठांम सुणाए सर्व नें, तिणरी मतकर ढील लिगार।।
२३. इत्यादिक कह्या ते कार्य करेनें, पाछी आगना सूपे आंण। __ते सेवग सुण हरषत हूवों, वचन कर लीधो परमाण।