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२.
पुन वळे
सं पामें पदवी
सर्व पांमें
संपदा, मोटकी,
भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० पुन , संपत मूल। पुन सबे अनुकूल।।
३. भरत नरिंद सर्व लोक नें, मीठों लागें अमीय समांण।
वळे पुन तणा परताप थी, कुण कुण मिलें संपत आंण।।
४.
भरत नरिंद राजंद नी, करें छे देवता टेंहल। जिहां वासो रहें तिहां करें, बयालीस भोमीया मेंहल।
५. ते महल बयालीस भोमीया, ते सर्व रत्न जडंत।
ते दीसें घणा रलीयांमणा, त्यां मेंहलां में कील करंत।।
६. त्यां मेंहलां रे जाल्या ने गोखडा, कर रह्या अतंत उद्योत।
तिहां हीरा मणी रत्नां तणी, लागी झिगामग जोत॥
७. कटक पडाव करें तिहां, त्यां सगलां ने रहिवा निवास।
जथाजोग करें देवता, घर हाट मंदर आवास।
अधीपति भरत इंद्र तणी तिणनें
खेत नो, जांणक पुनम चंद। ओपमा, तिण दीठां पांमें आणंद।।
९.
देव देव्यां रा वृंद नमावीया, भेटणा ले सेवग थाप। सीख दीधी छे आंण मनाय नें, ते पिण पुन तणो परताप।।
१० भरत क्षेत्र ना राजा भणी, सगलां ने कर दीधी रेत।
सगलां में सेवग ठहराय में, आप ठहत्या , सगलां रा म्हेंत।
११. हुकम फुरमावें. जो एक नें, जब हाजर हुवें , अनेक।
जी जी कार करें सहू, ते पुन तणों में विसेख।