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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१०
१६. बल तेज प्राकम सारा, आउखा लग रहें एक धारा।
कदे हीण पडें नही त्यांरो, पूरो पुन संचो , ज्यांरो।।
१७. छिद्र रहीत गाढो जिम घन, एहवो गाढो शरीर काया तन।
ते सरीर छे दोष रहीत, रूडा रूडा लखणां सहीत।
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१८. मछ झूसरो लोटों भिंगार, एहवा सरीर लखण श्रीकार।
व्रधमांन भद्रासण जाण, संख छत्र वीजणो बखांण।।
१९. पताका चक्र हल मूसल ताहि, रथ साथियो शरीर माहि।
आंकुस चंद्रमा सूर्य आकार, अगन यज्ञ थानक श्रीकार।।
२०. सागर इंदरधज्वा प्रथवी जाण, पदमकमल ने कुंजर बखांण।
सिंघासण दंड काछवो चंग, गिर परबत घोड़ो तुरंग।।
२१. मुगट कुंडल नंदावर्त्त जांण, धनुष भालों में भवन विमाण।
इत्यादिक रूडा लखण अनेक, त्यांमें दोष न लाभे एक।।
२२. सहंस ने आठ लखण मंगलीक, ठामो ठांम रह्या छै ठीक।
प्रगट जूआ जूआ दीसे ताम, जांणे चित्रकारी चित्रांम।।
२३. इचर्यकारी छे हाथ में पाय, रूडा लखण , त्यां माहि।
ऊर्धमुख आंकुरा जिम जांण, रोम जाल ना समूह बखांण।।
२४. श्रीवछ साथीया रे आकार, गंगा आवर्तन ज्यूं विसतार।
मांखण जिम छे घणु सुकमाल, चीगट सहीत , लोम जाल।।
२५. विपुल हीयों में श्रीकार, हीए श्रीवछ लखण आकार।
हिरदा ऊपर रूड़ा थण जांणो, ते पिण लखणां सहीत पिछांणो।
२६. उपनो आर्य क्षेत्र में नरेस, वनीता नगरी कोसल देश।
रूडा लखणां सहीत देह धारी, तिणरा पुन घणा छे भारी।