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दोहा
१. नव निधानों के प्रकट होने की बात जानकर भरतजी पौषधशाला से निकल कर स्नानगृह में आए।
२३. पूर्वोक्त विधि से स्नान कर उपस्थान शाला में आए। वहां सिंहासन पर बैठकर श्रेणि- प्रश्रेणि को बुलाकर कहते हैं- मेरे नौ निधान प्रकट हुए हैं । जाकर इनका महोत्सव करो। श्रेणि- प्रश्रेणि के लोग यह सुन हर्षित हुए और महोत्सव किया।
४. आठ दिनों का महोत्सव संपन्न होने पर भरतजी ने सेनापति को बुलाकर देवानुप्रिय गंगा नदी के उस पार दूसरे खंड में जाओ ।
कहा
५,६. वहां मेरी आज्ञा प्रवर्ताओ । उपहार लेकर उन्हें सेवक के रूप में स्थापित करो। यह सुन सेनापति ने वैसे ही किया। गंगा नदी के उस पार जाकर उपहार स्वीकार कर, आज्ञा प्रवर्ता कर पुनः भरतजी के पास आया और पूर्व में जो विस्तार कहा गया है वह सारा यहां जानना चाहिए। अब भरतजी सुख - विलास का उपभोग कर रहे हैं ।
७. एक बार फिर चक्ररत्न आयुधशाला से बाहर निकला । सहस्र देवताओं से परिवृत्त होकर आकाश में गया ।
८. वाद्ययंत्रों के शब्द से अकाश को आपूरित करता हुआ विजय कटक के बीचोंबीच होकर नैर्ऋत्य कोण में विनीता की ओर चलने लगा ।
९.
उसे विनीता नगरी की ओर जाते देखकर भरतजी हर्षित हुए। कार्यकारी पुरुष को बुलाकर हस्तीरत्न को सज्ज करने का आदेश दिया ।