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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० २. ते ऊमांण प्रमाण माहे में पूरी, तिणमें खोड नही छ लिगार।
एकसों आठ आंगुल प्रमाण जुगत छे, ते छे प्रमाणपेत श्रीकार।।
३. तेजवंत शरीर रूपवंत आकार, छत्रादिक लखण तिण मांहि।
अविनासी जोवन निरंतर तेहनों, केस नख कदे धवला न थाय।।
सर्व रोग तणी विणासणहारी, कर फरस्यां सर्व रोग जावें। बल वीर्य नी वधारणहारी, तिण भोगवीयां बल नी विरध थावें।।
५. वंछत सीत उष्ण फरस छे तिणरों, छहुं रितु फरस मनोगन।
सीत रितें तिणरों फरस उसन, उसन रितें सीत लागें तन।।
तीनां ठांमां पातली , रूडी, तीनां ठांमां , रक्त अतंत। वळे तीनो ठांम ऊंचा , तिणरें, तीन ठांम गंभीर सोभंत।।
तीन ठांम छे काली अतंत, तीनां ठांमा स्वेत वखांण। तीनां ठांमां , आयतण लांबी, तीनां ठांमां , पहली प्रमाण।।
समचोरस संठांण सरीर समों ,, तिणरों रूप अनोपम भारी। भरत क्षेतर री सर्व महिला में, इणसूं इधिकी नही नारी।।
९. सूंदर मनोहर थण छे तिणरा, मुख पुनम चंद समांण।
हाथ में पाय नेत्र छे तिणरा, इचर्य कारी अनोपम जांण।।
१०. मस्तक ना केस में श्रेण दांतां री, ते पिण घणों श्रीकार।
देखणहार में रमणीक हिरदा माहे लागें, मननी हरणहारी छे नार।।
११. सिणगार तणों आंगर घर वारू, मनोहर चारू , वेस।
वळे चालवों बोलवों मिंत्रीचारा में, चुतराई घणी छे वशेस।।