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दोहा
१. आष्टाह्निक महोत्सव पूरा होने पर फिर चक्ररत्न आयुधशाला से निकलकर आकाश में ऊंचा आया।
२. वह दक्षिण दिशा में वैताढ्य पर्वत की ओर चला। भरतजी उसके पीछे-पीछे हो गए। वैताढ्य गिरि के उत्तर दिशा में अपनी सेना का पड़ाव किया।
३. वहां पौषधशाला में तेला कर नमी-विनमी विद्याधर के लिए एकाग्रचित्त से ध्यान करने लगे।
४. तीन दिन पूरे होने पर देवताओं के कहने से नमी-विनमी को इस बात का पता चला।
५. उन्होंने आपस में मिलकर कहा- भरतक्षेत्र में भरत नाम का चक्रवर्ती पैदा हुआ है। हम उसका आतिथ्य करें।
६. तीनों ही काल में हमारा यह जीत व्यवहार है कि चक्रवर्ती को उपहार प्रदान करें। इसलिए अपने को भी वहां चलना चाहिए।
७. हम भी विशिष्ट उपहार लेकर भरतजी के चरणों में प्रस्तुत करें। यह सोचकर विनमी राजा अपनी पुत्री उन्हें समर्पित करने के लिए चला।
ढाळ : ४५
स्त्री-रत्न अमूल्य, अत्यन्त पुण्यवती और रमणीय है। १. विनमी विद्याधर ने बड़ी सुरक्षा से सुभद्रा नाम की अपनी स्त्रीरत्न पुत्री का भरतजी के पुण्य प्रमाण से पालन-पोषण किया।