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दोहा १,२. भरतजी ने आपात चिलातियों को विदा कर सेनापति को बुलाकर कहादेवानुप्रिय ! तुम जाओ और अब सिंधु नदी के बाहर दूसरे खंड में पश्चिम में लवण समुद्र तक वैताढ्य और हिमचूल पर्वत के बीच सम-विषम, ऊंची-नीची सभी जगह मेरी आज्ञा स्वीकार करवाओ।
३. सबको आज्ञा स्वीकार करवाकर, भारी रत्न आदि का उपहार स्वीकार कर, उन्हें पदनामी बनाकर मेरी आज्ञा को प्रत्यर्पित करो।
४. सेनापति ने यह सुन पूर्वोक्त रूप से जैसा किया वैसा ही किया। आगे जैसे खंडों को साधकर उपहार लेकर वापस आया और भरतजी की आज्ञा को प्रत्यर्पित किया।
५. फिर एक बार चक्ररत्न सहस्र देवताओं सहित आयुधशाला से बाहर निकला, ऊंचा आकाश में ऊपर गया।
६. अनेक वाद्यंत्र बजते हुए वह ईशान कोण में चूल हेमवंत की ओर चला। भरतजी ने उसे देखा।
७. भरतजी भी सेना लेकर उसके पीछे-पीछे चले। चूल हेमवंत के नातिनिकट, नाति-दूर पड़ाव किया।
ढाळ : ४४
राजेन्द्र सौभाग्यशाली है। १. चूल हेमवंत गिरिकुमार को साधने के लिए पौषधशाला में सातवां तेला किया।