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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० २१. सूआ नी परें नीलें वरण छे, सुकमाल कोमल काया , ताम।
इसडों कमला मेलें अश्व रत्न छे, ते मन में लागें छे घणों अभिरांम।।
२२. इत्यादि गुण अनेक , तिणमें, ते सगलाइ पुरा कह्या नही जाय।
वळे गेंहणा ने आभूषण तिणरों, ते पिण पूरा न कह्या छे ताहि।।
२३. इसरी चीज अमोलक भरत खेतर में, चक्रवत विना ओर रें नही थाय।
ॲतों भरत नरिंद रे पुन प्रमाणे, अश्व रत्न उपनों छे आय।।
२४. सहस देवता छे तिणरें अधिष्टायक, तिणरा सेवग जेम करें , जतन।
ते त्यांरा नेणां ने लागे घणों हितकारी, इसरों पुनवंत छे अश्व रतन।।
२५. एहवा अश्व रत्न में गिरधी न होसी, त्याग देसी मन वेंराग आण।
सीहतणी परें संजम पालें, इण हीज भव माहे जासी निरवाण।।