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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १२. सुकल पिता पख आंण उपनों, ते मेधावी अतंत घणों बुधवांन। __ दुष्ट बुध नही भदरीक सभावी, धणी कार्य करवाने घणो सावधान।।
१३. वनीत घणों स्वामी दिष्ट कारी छे, तिणरी पातली सुखमाल छे रोमराय।
ते चिगटी अतंत घणी रोमराइ, छवी क्रांत अतंत रूडी छे ताहि।।
१४. देवता नो मन वाउ नो गमण, त्यांने वेगें करी जी चाली जीपंत।
चपल घणों सीघ्रगामी छे चलिवों, रखीसर नी परें , खिमावंत।
१५. सुसिष्य नी परे वनीत छ प्रतख्य, स्वामी वंछत कार्य करेंतों आलस नांणे।
इसरों कमला मेल अश्व रत्न छे, भरत नरिंद रे मिलीयों पुन प्रमाणे॥
१६. पाणी अगन रेण कर्दम कादों, वालु सहीत रेत वळे नदी तट जाणों।
परवत ढूंक विषम ठांम सारी, गिरी दरी आदि अनेक पिछांणो।।
१७. इत्यादिक भारी भारी विषम थानक नें, उलंघतो संक न आणे लिगार।
प्रेरणहारों थोडी संज्ञा करें तो, ततखिण तेहनें उतारें पार।
१८. काले अवसर हींस करें ,, निद्रा नें आलस जीतों , ताम।
वळे जीतों में सीतापादिक नों परिसों, मल मात्रों करें देखी अवसर ठांम।।
१९. जातवंत माता पख पूरे उपनों, तिणरी सुगंध घणी छे घणइंद्री नास।
प्रधान कमल ना फूल सरीखो, एहवा छे तिणरा सास निसास।।
२०. उतकष्टा सुभट उपर पडें अचिंत्यों, दंड पडें ज्यूं पडें संग्राम।
अतंत खेद पांम्यों न करें आंसूपात, रक्त तालूओ दोष रहीत छे ताम।