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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १४. तिणसूं वेगा जावो जिहां भरत राजांन, त्यारे पगे पडों छोडे अभिमान।
जीवा वचण रो ओहीज उपाय, ओर तों कारी न लागें काय।।
१५. तिण कारण सिनांन करे सुध थाय, बलिकर्म करो सताब सूं जाय।
दुस्वपना निवारण काज, प्रायछित मंगलीक करनें आज।
१६. भीना वस्त्र पहरों ततकाल, त्यांरा छेहडा नीचा राल।
नीचों मुख धरती साहमों न्हाल, वळे भारी भेटणों रत्न रसाल।।
१७. एहवों भेटणो मोटो लेइ साथ, वळे दोनूंड जोडे हाथ।
त्यारें पगां भेटणों मेलों जाय, पछे भरत नरिंद रे लागों पाय।।
१८. उत्तम पुरष भरतेसर राय, तेहीज थांने सरणागति थाय।
त्यांकनें जातां भय म करों लिगार, थांने भरत होसी हितकार।
१९. इम कहें देवतां वारूंवार, यांने सीख दीधी छे घणी हितकार।
इम कहे देवता गया ठिकाण, यां पिण वचन कीयों परमाण।।
२०. ते सगलाइ राजा नमसी आय, भरत रा पुन तणे पसाय।
त्यांमें पिण नही राचें माहाराय, दिख्या ले जासी मुगत रे माहि।।