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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ११. पूर्व भव तप गुण तणे परताप ए,
एहवो छत्र रत्न पाया भरतजी आप ए। ए रत्न चक्रवत विना सर्वनें दोहिलों ए,
विमांणवासी देव ने पिण नही सोहिलो ए।। १२. तिणरें लहक रही घणी फूलांरी माल ए, चंद्रमा सरीखों प्रकास उजवाल ए।
तिणरें अधिष्टायक छे सहंस देवता ए, ते पिण छत्र रत्न ने सेवता ए।
१३. धरणी तलें जांणे ऊगों छे चंद ए, तिण दीठां पांमें सर्व जीव आणंद ए।
इसडों छे छत्र रत्न निधान ए, तिणमें गुण घणा अद्भूत असमान ए।।
१४. एहवों छत्र रतन गुण खांण ए,
तिणरें भरतजी हाथ लगावत प्राण ए। जब विसतस्यों जाझेरो जोजन बार ए,
ते सिघर ततकाल तिरछों तिणवार ए॥
१५. तिण छतर ने स्वमेव भरत जी आप ए, सर्व सेन्या ऊपर छत्र दीयों थाप ए।
वळे मणीरत्न लीयों हाथ मझार ए, छत्र दंड रे मध्य मूक्यों तिणवार ए॥
१६. तिण मणीरत्न तणों अतंत उद्योत ए, घणी लाग रही छे झिगामिग जोत ए।
तिण जोत नसाड दीयो अंधकार ए, जाझेरो बारें जोजन विसतार ए।।
१७. जब गाथापती रत्न परधान निधान ए, धांनादिक नीपजावणने सावधान ए।
तिणरों रूप घणों छे अतंत अनुप ए, तिण रत्नरों अधिपती भरतजी भूपए।
१८. जिहां चर्म रत्न विस्तारयों राजांन ए, तिण उपर वायो गाथापती धांन ए।
साल जव गोहूं मुंग ने माष ए, तिल में कुलथ चिणादिक साख ए॥
१९. इत्यादिक धांन अनेक प्रकार ए,
त्यांरों जूओं , घणों विसतार ए। वळे कंद आदादिक तेहनी जात ए,
वळे आंबा ने आंबली प्रसिध विख्यात ए।।