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भरत चरित
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११. पूर्व भव के तपोगुणों के प्रभाव से भरतजी ने ऐसा रत्न पाया। चक्रवर्ती के अतिरिक्त यह सबके लिए दुर्लभ है । विमानवासी देवताओं को भी यह सुलभ नहीं है।
१२. इसके चारों ओर फूलों की मालाएं लहरा रही हैं। चंद्रमा सरीखा इसका उज्ज्वल प्रकाश है। एक हजार देवता इसके अधिष्ठायक वे छत्र रत्न की सेवा करते हैं।
१३. ऐसा लगता है जैसे धरती पर चांद ऊग आया है। देखने मात्र से सब जीव आनंदित होते हैं। छत्र रत्न ऐसा अद्भुत और अतुल्य गुणों का निधान है ।
१४. ऐसे गुणरत्नों की खान छत्ररत्न भरतजी के हाथ लगाते ही तत्काल बारह योजन से किंचित् अधिक तिरछा फैल गया।
१५.
भरतजी ने स्वयं सारी सेना पर छत्र स्थापित कर दिया । मणिरत्न को हाथ में लेकर छत्र दंड के मध्य भाग में रख दिया।
१६. मणिरत्न के अत्यंत उद्योत से जगमग ज्योति जगने लगी। उसने बारह योजन से भी कुछ अधिक दूर तक के अंधकार को दूर भगा दिया।
१७. उसके बाद गाथापतिरत्न अन्न पैदा करने के लिए उद्यत हुआ। उस रत्न का रूप भी अत्यंत अनुपम है । भरतजी उसके अधिपति हैं ।
१८- २१. राजा ने जहां तक चर्मरत्न का विस्तार किया गाथापति ने उस पर शाल, जौ, गेहूं, मूंग, माष, तिल, कुलथ, चना आदि अनेक प्रकार के अलग-अलग नाम वाले अनाज बो दिए ।
वह छहों ऋतुओं में आर्द्रक आदि कंद, तरोई, तुंबा आदि अनेक प्रकार की हरी साग-सब्जी, आम- आमली आदि रसदार फल तथा अनेक जाति के विशिष्ट फूल आदि पैदा करने में भी सक्षम है।