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दोहा
१. आठ दिन का महोत्सव पूरा होने पर भरतजी ने सेनापति को बुलाकर कहा
२. तुम जल्दी से जल्दी सिंधु नदी के उस पार जाओ और लवण समुद्र के इस पार के सब लोगों को मेरी आज्ञा मनवाओ ।
३. उन्हें मेरे सेवक बनाकर रत्नादिक के बड़े-बड़े उपहार लेकर मेरी आज्ञा को मुझे प्रत्यर्पित करो।
४. भगवान् ने सुषेण सेनापति का विस्तार से वर्णन किया है। मैं उसे थोड़े रूप में प्रकट कर रहा हूं। उसे सब चित्त लगाकर सुनें ।
ढाळ : २९
भरत नरेन्द्र का सेनापति रत्न ऐसा है ।
१. भरत के सेनापतिरत्न का नाम सुषेण है । वह बडा भाग्यशाली है । भरतक्षेत्र में स्थान-स्थान पर उसका यश फैला हुआ है ।
२. भरतक्षेत्र में वह प्रसिद्ध - प्रख्यात है । उसका पराक्रम प्रबल है। उसके मन का वीर्य - उत्साह अपार है । उसकी आत्मा महान् है ।
३. उसके शरीर की तेज - कांति अपार है । वह धैर्य आदि लक्षणों से युक्त है । उसकी यशकीर्ति चारों ओर फैली हुई है । वह सब दोषों से मुक्त है ।