________________
१७२
भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ४. मलेछ नी भाषा में विविध परकार नी, पारसी आरबी आदि जांण रे।
त्यांरी भाषा रों जांण प्रवीण छे अति घणो, डाहों , चुतर सुजाण रे।।
ते भाषा बोलें , विविध प्रकार नी, ते मीठी मनोहर जांण रे।। वळे गमतों वचन लागें छे तेहनों, बोलें छे मानोंपेत प्रमाण रे।
६. अर्थसासत्र नीतसासत्र आदि दे, अनेक सासत्र नों जांण रे।।
कला चुतराई तिणमें अति घणी, तिणमें विविध प्रकार नीं पिछांण रे।
७. भरतखेतर में खांड गुफादिक, वळे दुर्गम जायगा जांण रे।।
दुखे जायवोंने दुखें पेंसवों, तिणरों पिण जांण पिछांण रे।
८. परबत झंगी विषम जायगादिक, तठे कायर तणों नही काम रे।।
तिण ठामें प्रवेस करतों संकें नही, भय नही पांमें तिण ठाम रे।।
९. सूरवीर धीर साहसीक छे अति घणों, सेनापती रत्न वखांण रे।
प्रबल पुन संचों छे तेहनें, ते उदें हुआ , आंण रे।।
१०. देवता सहंस तिणरी सेवा करें, अधिष्टायक रहें , हूजूर रे।
सेनापती रत्न कोपें तिण ऊपरें, तिणनें भांज करें चकचूर रे।।
११. देवता सहंस सेन्यापती रत्न रे, रात दिवस रह्या तिण पास रे।
मन चिंतवीयो कार्य करें तेहनों, मनमें आण हुलास रे।।
१२. इसरों पुनवंत रत्न सेनापती, तिणरों अधिपति भरत माहाराय रे।
तिण भरत नरिंद रा पुनरों कहिवों किंसू, त्यारे सेन्यापती रत्न , ताहि रे।।
१३. वनीत घणों , भरत नरिंद नों, आगनाकारी सेवग ताम रे।
जे जे कार्य भलावें तेहनों, ते हरष सहीत करे काम रे।।