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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१०
१४२ १८. च्यार चामर करनें सोभता, कनक करे विभूषत अंग रे।
विवध प्रकारना गेंहणां करी, सिणगारने कीया सुचंग रे।।
१९. एहवा अश्व रथ रें जोतस्या, छत्र करनें सहीत रथ जांण रे।
धजा घंटा पताका सहीत ,, सोभे पोता पोता रे ठिकाण रे।।
२०. माहोमा संध मेली रूडी परें, संग्रामीक रथ श्रीकार रे।
गंभीर वाजंत्र शब्द सारिखों, तिणरों उठे शब्द गूंजार रे।।
वर प्रधान तिणरी पीजणी, रूडा तिणरा पइडा बखांण रे। वर प्रधान दोला विटे रही, धारा वृत्त चकर पणे जांण रे।।
२२. वर परधान धारा ना छेहडा, कंचनकरी विभूषत ताहि रे।
वज्र रत्न सूं बांधी नाभ नें, चुतर कारीगर आय रे।।
२३. वर प्रधान तिणरो सारथी, रूडी परें ग्रही जांतों तेह रे।
वर प्रधान पुरष भरतजी, वर प्रधान रथ , एह रे।।
२४. रूडा रत्नां माहे रथ सोभतो, सोवन माहे घूघरीयां तास रे।
तिणनें कोइ जीत सकें नही, वीजली शरीखो प्रकास रे॥
२५. सर्व रितूना फूलां तणी, माला ने दडा ठाम ठांम रे।
गाज सरीखों शब्द तेहनों, ऊंची धजा कीधी , तांम रे।।
२६. तिण उपर बेठां पृथवी जीतलें, तिण बेठां भूजां लाभ अपार रे।
तिणसूं विजयलाभ रथ नाम ,, वेश्यां नों कंपावणहार रे।।
२७. एहवो रथ आय मिलीयो भरत नें, ग्यांन सूं जाणे धूल समान रे।
तिणनें छोडसी वेंराग आणनें, जासी पांचमी गति परधान रे।।