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भरत चरित
१४१ ७. एक-एक दिशा में १२ x ४ = ४८ अरों की रचना की गई। उनमें तपनीक रक्त स्वर्ण से श्रेष्ठ पट्ट जड़े हुए हैं।
८. उनसे रथ की नाभि को तुंबडे की युक्ति से सुदृढ़ किया गया। उनके किनारों को घोट-घोट कर अच्छी तरह से स्थापित किया।
९. नए काठ के विशिष्ट पट्टों से उसकी चक्रपूठी बनी हुई है तथा विशिष्ट नए प्रकार के लोह के बंधन बंधे हुए हैं।
१०. वासुदेव के चक्ररत्न के अनुरूप ही रथ के पहिए भी अनुपम हैं। कुशल कारीगरों ने अत्यंत चतुराई से उनका निर्माण किया है।
११. करकेतन, नीलक तथा शासक, इन तीन प्रकार के रत्नों को उसमें बांधकर सुंदर संस्थान रचा गया है।
१२. जालियों के समुदाय से उन्हें बांधा गया है। उनकी भी अनेक श्रेणियां हैं। उसकी धुरी विस्तीर्ण, प्रशस्त तथा विशेष सधी हुई है।
१३. रक्त-स्वर्णमय ज्योति वाली उसकी कांति अत्यंत मनोरम है। उस रथ में शस्त्रकवच आदि भरे हुए हैं।
१४. खड्ग, बाण, शक्ति, त्रिशूल आदि शस्त्रों के बत्तीस प्रकार के भाथड़ों से वह रथ मंडित है। वह पूर्ण रूप से सुशोभित है।
१५. कनकरत्न के चित्रों की ज्योति जगमगा रही है। उसमें जुते हुए घोड़े उज्ज्वल श्वेत रंग का उद्योत कर रहे हैं।
१६. मालती के फूलों की माला, चंद्रमा के प्रकाश तथा मोतियों के हार के समान उन घोड़ों की आभा उज्ज्वल है।
१७. घोड़ों की गति देवताओं के चपल मन तथा वायुवेग के समान अत्यंत शीघ्र है। सूत्र में भी उसका प्रमाण नहीं बताया गया है।