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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० १७. तिणरो अधिपती भरत नरिंद, जांणे पुनम केरो चंद।
तिण पाल्यों तप संजम अगाधो, तिणसूं इसरों रत्न तिण लाधो।।
१८. ते हाथ जोडी बोलें आम, मोंने फरमावो काम।
इसडों छे आगनकारी, कार्य भलायां तुरत हुवें त्यांरी।।
१९. ते वधिकरत्न तिण ठाम, कटक उतारयों छे ताम।
पोषधसाल सहीत आवास, लोकां ने रहिवाना घर तास।।
२०. एक मूहरत में त्यारी कीधा, मन चिंतव्या देवां कर दीधा। __सर्व कार्य कर लें ताहि, पाछी आगना सूंपी आय।।
२१. ते भरतजी सुणनें हरखें, पाप लागांसं मन माहें धडकें।
त्यां सगलां ने छोडे होसी न्यारो, इण भव जासी मोक्ष मझारो।।