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भरत चरित
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८. समवसरण में इंद्र-इंद्राणो, देवी-देवता तथा नर-नारियों के वृंद के बीच प्रभु ऐसे विराजमान थे जैसे तारों के बीच में चंद्रमा विराजमान हो।
९. वहां देवता देवदुंदुभी बजाते हुए मन में अत्यंत प्रसन्नता का अनुभव कर रहे थे। रास्ते चलते हुए मोरादेवी के कानों में वे शब्द पड़ते हैं।
१०. उन शब्दों को सुनकर मोरादेवी ने भरत से पूछा- ये मधुर, गहर-गंभीर वाद्य कहां बज रहे हैं?।
११. तब भरतजी ने कहा- देवता ऋषभ भगवान् की महिमा के लिए समवसरण में आ रहे हैं और देव दुंदुभि बजा रहे हैं।
१२. अब मोरादेवीजी मन में चिंतन करने लगीं- मैं तो समझती थी कि ऋषभ दु:खी होगा, पर यह तो पूरा सुखी दीख रहा है। मैंने उसका मिथ्या ही मोह किया।
१३. मैं तो इसके लिए दुःखी हो रही थी पर इसको मेरी कोई परवाह नहीं है। सचमुच में मां-बेटे का यह संबंध कच्चा है। इसमें कोई सार नहीं है।
१४. इस प्रकार एकत्व भावना भाते हुए वहीं उनके मन में वैराग्य आया और बिना गृहस्थ का वेष बदले ही उन्होंने सर्व सावद्य योगों का त्याग कर दिया।
१५. माताजी ने मुक्ति के लिए उद्यत होकर निर्मल ध्यान ध्याया और मोहकर्म जीतकर केवलज्ञान को प्राप्त कर लिया।
१६. वर्तमान तीर्थंकरों की चौबीसी में मोरादेवीजी ने हाथी के हौदे पर बैठे-बैठे सबसे पहले मुक्ति नगरी में प्रवेश किया।
१७. उन्होंने जरा भी तपस्या नहीं की, केवल भावना से कर्मों को काट डाला। सुख-समाधिपूर्वक मुक्ति पद प्राप्त कर लिया।
१८. ऋषभदेव को अपने गर्भ में धारण कर माताजी मुक्ति में पहुंच गए। कर्मों का नाश कर शाश्वत सुखों में विराजमान हो गए।