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भिक्षु वाङ्मय-खण्ड-१० ८. इंद्र इंद्राणी देवी देवता, नर-नाश्यां ना व्रदो जी।
समोसरण में साहिब बेंठा, जिम तारां में चंदो जी।।
९. तिहां देवदूधवी देव वजावें, मन में हरखज
मारग में मोरादेवी रें, ते शबद पड्या ,
माने कानें
जी। जी।
१०. ए शबद सुणीनें मोरादेवीजी, पूछे भरत ने आंमो जी।
ए मीठा शबद गेंहर गंभीरा, वाजा वाजे किण ठामो जी।।
११. जब कहें भरतजी समोसरण में, देवी देवता आवें जी।
श्री रिखभदेवजी महिमा काजें, देवदूधवभी देव वजावें जी।।
१२. हिवें मोरादेवीजी मन में चिंतवें, म्हें मोह कीयों सर्व कूडो जी।
म्हें जांण्यों रिखभो दुखीयो होसी, पिण ओ सुखीयो दीसे पूरों जी।।
में
१३. म्हें तो इणरें काजें दुख वेद्यों, इण म्हारी काय न आणी जी।
जब मा बेटां रो काचों सगपण, जांण लीयो धूरधांणी जी।।
१४. एकंत भावना तिहाइज भाया, आयो मन वेंरागों जी।
गृहस्थ नों भेष विन पालटीयां, कीया सर्व सावध ना त्यागों जी।।
१५. जग तारणनें जुगती जामण, ध्यायो निरमल ध्यांनो जी।
मोहकर्म मोरादेवीजी जीता, पाम्यों केवलग्यांनों जी।।
१६. इण चोवीसी में सगलां पेंहली, सिवनगरी में पेंठा जी।
मोरादेवीजी मुगत पोहता, हाथी होदें बेंठा जी।।
१७. भावना भाए कर्म काट्या, तपस्या मूल न कीधी जी।
सुखे समाधे मोरादेवी जी, अविचल पदवी लीधी जी।।
१८. आदनाथजी उदर धरेनें, मुगत पोहती माता जी।
सासता सुखां में जाय विराज्या, करे करमांनी घाता जी।।