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ते सर्वेऽवस्थिता धर्मे, सर्वे चैवैकचेतसः । अधर्मेण निरस्ताश्च तुल्ये राज्ये विशेषतः । । 13 ।। यदि धर्मस्त्वया कार्यों यदि कार्यं प्रियं च मे । क्षेमं च यदि कर्त्तव्यं तेषामर्थं प्रदीयताम् । । 14 । । ( महाभारतम्)
पाठक श्लोकों में शब्दों का तथा अर्थ में अन्वय के शब्दों का क्रम देख लें और अन्वय बनाना सीखें। बोलने के समय जैसे शब्दों की पूर्वापर रचना होती है, उसी प्रकार शब्दों की रचना को अन्वय कहते हैं । श्लोकों में छन्द के अनुसार शब्द इधर-उधर रखे जाते हैं ।
(दिष्ट्या हि पार्था ध्रियन्ते) सुदैव से पांडव ज़िंदा रहे हैं (सा पृथा दिष्ट्या जीवति) वह कुन्ती सुदैव से जिंदा है। (पापः पुरोचनः ) पापी पुरोचन राजा (दिष्ट्या सकामः) सुदैव से कृतकार्य होकर ( अत्ययं न गतः ) विनाश को प्राप्त न हुआ ।। १ ।।
(लोकः अत्र तथा ) लोग यहां वैसा (पुरोचनं दोषेण न मन्येत ) पुरोचन को दोष से ( युक्त) नहीं मानते (पुरुषव्याघ्र ! यथा त्वां ) हे मनुष्य-श्रेष्ठ ! जिस प्रकार तुमको (लोकः दोषेण गच्छति) लोक दोष से (युक्त) समझते हैं ।। 10 ।।
( तत् इदं तेषां जीवितम् ) वह यह उनका जीवन है । ( तव किल्विषनाशनम्) तुम्हारे पाप का नाशक है। इसलिए (महाराज) हे महाराज ! ( पाण्डवानां सुदर्शनं सम्मन्तव्यम्) पाण्डवों का उत्तर दर्शन मानिये ।। 11 ।।
( कुरुनन्दन ) है कुरुपुत्र ! (तेषां वीराणां जीवताम् ) उन वीरों की ज़िन्दगी तक (स्वयं वज्रभृता अपि) स्वयं इन्द्र के द्वारा भी (पित्र्यंशः आदातु अपि च न शक्यः ) पैतृक धन लेना शक्य नहीं । । 12 ।।
(ते सर्वे धर्मे अवस्थिताः) वे सब धर्म में ठहरे हैं । ( सर्वे च एकचेतसः) और सब एक दिलवाले हैं। (विशेषतः तुल्ये राज्ये) विशेषकर समान राज्य में (अधर्मेण निरस्ताः च) अधर्म से हटाये गये हैं । । 13 ।।
( यदि त्वया धर्मः कार्यः) अगर तूने धर्म करना है । (यदि मे प्रियं च कार्यम अगर मेरे लिए प्रिय करना है । ( च यदि क्षेमं कर्त्तव्यम्) और अगर कल्याण करना है । ( तेषाम् अर्धं प्रदीयताम् ) उनको आधा भाग दीजिए । । 14 ।।
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