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भवदन्तिकं प्रेषितः।"
भगवान चन्द्र ने आपके पास भेजा है।" __(10) यूथपतिः आह-“कार्य (10) समुदाय के राजा ने कहा-“काम । उच्यताम्" विजयो ब्रूते-“उद्यतेषु अपि कहिए।" विजय बोलता है-"शस्त्र खड़े शस्त्रेषु दूतोऽन्यथा न वदति। सदा एव होने पर भी दूत असत्य नहीं बोलता, अवध्यभावेन यथार्थस्य एव वाचकः। हमेशा ही अवध्य होने के कारण सत्य
का ही बोलनेवाला (होता है)। (11) तद् अहं तवाज्ञया ब्रवीमि। शृणु, (11) तो मैं तेरी आज्ञा से बोलता हूं। यद् एते चन्द्रसरो-रक्षकाः शशकाः त्वया सुन, जो ये चन्द्र के तालाब के रक्षक निःसारिताः तत् न युक्तं कृतम्। खरगोश तूने हटाए (मारे) वह नहीं ठीक
किया। (12) यतः ते चिरम् अस्माकं रक्षिताः। (12) क्योंकि वे बहुत समय से हमारे अत एव मे शशांकः इति प्रसिद्धिः । एवं रखे हुए (रक्षित) हैं इसलिए मेरी 'शशांक' उक्तवति दूते यूथपतिः मयाद् इदम् आह।। ऐसी प्रसिद्धि है।" इस प्रकार दूत के
बोलने पर हाथियों का पति भय से यह
बोला। (13) "इदम् अज्ञानतः कृतम् । पुनः (13) “यह अनजाने में किया, फिर न गमिष्यामि।"
नहीं जाऊंगा।" __“यदि एवं तद् अत्र सरसि कोपात् "अगर ऐसा है तो यहां तालाब में कम्पमानं भगवन्तं शशांकः प्रणम्य प्रसाद्य । गुस्से से कांपनेवाले भगवान चन्द्रमा को गच्छ।"
प्रणाम करके, तथा प्रसन्न करके जा।" - (14) ततो रात्रौ यूथपतिं नीत्वा जले __(14) पश्चात् रात्रि में हाथी-समूह के चञ्चलं चन्द्रबिम्बं दर्शयित्वा यूथपतिः राजा को लेकर जल में हिलनेवाली चन्द्र प्रणामं कारितः।
की छाया बतलाकर समूहपति से नमस्कार
करवाया। __(15) उक्तं च तेन-“देव,अज्ञानाद् (15) और वह बोला-“हे देव ! अनेन अपराधः कृतः। ततः क्षम्यताम्।। अनजाने में इसने अपराध किया। इसलिए न एवं वारान्तरं विधास्यते।" इति उक्त्वा क्षमा कीजिए। इस प्रकार दूसरे दिन नहीं प्रस्थितः।
करेगा" ऐसा कहकर चल पड़ा। (हिथोपदेशात्)
(हितोपदेश)
9. सर:+रक्षकाः ।