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सर्वशक्तिमत्-सब शक्तियों से युक्त। उपपद्यते-बनती है, सजती है, योग्य होती है। अन्तरेण, अन्तरा-बिना, सिवाय। विद्यमान-रहना, होना। अस्मदादीनाम् (अस्मद् आदीनाम्)-हम जिनमें पहले हैं ऐसे मनुष्यों का। अध्ययनानन्तरम् (अध्ययन-अनन्तरम्)-पठन के पश्चात् । पशुवत्-पशुओं के समान। आदिसृष्टिः-आरम्भ की सृष्टि। प्रवृत्ति-स्वभाव। परमेश्वरः-(परम-ईश्वरः) बड़ा स्वामी। उत्पद्यते-बनता है, उत्पन्न होता है। ईश्वरः-मालिक, शासक। कुतः-किस कारण, क्यों ? सदैव (सदा-एव)-हमेशा ही। खलु-निश्चय से। सकलम्-सम्पूर्ण। महारण्यम् (महा-अरण्यम्)-बड़ा बन। आरभ्य-प्रारम्भ करके । वेदोपदेशः (वेद-उपदेशः)-वेद का उपदेश।
आगे के पाठों का अर्थ हम संस्कृत शब्दों के क्रम से दे रहे हैं। इससे पता लगेगा कि दोनों भाषाओं की वाक्य-रचना में क्या अंतर है। कठिन संस्कृत शब्दों के ऊपर छोटे टाइप में संख्या दी गई है और हिंदी के जो शब्द इनके अर्थ हैं, उनके साथ भी यही संख्या लगाई गई है।
गुरु-शिष्य-संवादः शिष्यः-निरवयवात्' परमेश्वरात् शब्दमयः वेदः कथम् उत्पद्यते-निराकार' परमेश्वर से,
शब्दों से भरा हुआ वेद कैसे उत्पन्न होता है ? गुरुः-सर्वशक्तिमति ईश्वरे इयं शङ्का न उपपद्यते-सर्वशक्तिमान ईश्वर के लिए यह
शंका ठीक नहीं लगती। शिष्यः कुतः-क्यों ? गुरुः-मुखादिसाधनम् अन्तराऽपि तस्य, कार्यं कर्तुं सामर्थ्यस्य सदैव विद्यमानत्वात्-मुख
आदि साधन के बिना भी उसका कार्य करने के लिए सामर्थ्य सदा रहता है। यः अस्ति खलु सर्वशक्तिमान् स नैव कस्याऽपि साहाय्यं, कार्य कर्तुं, ग्रहाति-जो है निश्चय से सर्वशक्तिमान् वह नहीं किसी की भी सहायता कार्य करने के लिए, लेता है। यथा अस्मदादीनां सहायेन बिना कार्यं कर्तुं सामर्थ्यं नास्ति। न च ईश्वरे-जैसे हम जैसों का, सहायक के बिना कार्य करने के लिए सामर्थ्य नहीं है। ना ही
और ईश्वर में (अर्थात् हमारी जैसी अवस्था ईश्वर में नहीं)। यदा निरवयवेन ईश्वरेण सकलं जगत् रचितम्, तथा वेदरचने का शकाऽस्ति-जब
निराकार ईश्वर ने सब जगत् रचा है, तब वेद रचने में क्या शंका है ? शिष्यः-जगद्-रचने तु खलु ईश्वरम् अन्तरेण', न कस्याऽपि सामर्थ्यम् अस्ति-जगत्
रचने में तो निश्चय से ईश्वर को छोड़कर', नहीं किसी का भी सामर्थ्य है। वेद-रचने तु अन्यस्य ग्रन्थ-रचनावत् स्यात्-वेद रचने में तो दूसरे ग्रन्थ की रचना