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गया।
अर्थ-हे नाथ! मुझ कुबुद्धि के द्वारा न श्रेष्ठ चारित्र धारण किया गया, न परोपकार किया गया, न धर्मामृत पिया गया और न ही जीर्णोद्धार, तीर्थवंदना आदि श्रेष्ठ कार्य किए गए।
अनेक भव निरर्थक गए उवजिदं णो य दाणेण पुण्णं, दया-दमं णत्थि भावेण किच्चं। किलेसजुत्ता हि जादा दसा मे, सव्वे भवा मे विगदा णिरत्था॥16॥
अन्वयार्थ-मैंने (दाणेण पुण्णं) दान से पुण्य (ण) नहीं (उवजिदं) उपार्जित किया, (भावेण) भाव से (दया-दम) दया-दम (ण) नहीं (किच्चं) किया (इसलिए) मे मेरी (दसा) दशा (किलेसजुत्ता हि) क्लेशयुक्त ही (जादा) हो गई है (य) और (मे) मेरे (सव्वे भवा) सभी भव (णिरत्था) निरर्थक (विगदा) गए।
अर्थ-हे प्रभु! मैने सुपात्रों में दान देकर पुण्य नही कमाया, न ही भावपूर्वक जीवों पर दया की और न ही इंद्रियों का दमन किया, इसलिए मेरी दशा क्लेशयुक्त हो रही तथा मेरे सभी भव निरर्थक गए।
फिर भव पार कैसे होगा? गुरुवदेसेसु मणं ण दिण्णं, विरत्तिभावो ण कदा गहीदो। पंचक्खतण्हा जरढा ण जादा, पारं कधं होमि भवादो देव!॥17॥
अन्वयार्थ-(देव!) हे देव! [मैंनें] (गुरुवदेसेसु मणो ण दिण्णं) गुरु के उपदेशों में मन नहीं लगाया (कदा वि) कभी भी (विरत्ति भावं ण धत्तं) विरक्ति भाव धारण नहीं किया (पंचक्खं तण्हा जरढा ण जादा) [मेरी] पाँच इंद्रियों की तृष्णा पुरानी नहीं हुई [तब] (भवादो) भवसागर से (कधं) कैसे (पारं) पार (होमि) होऊँगा।
__अर्थ-हे देव! मैंने गुरु के उपदेशों में मन नहीं लगाया, न कभी विरक्ति भाव धारण किया और न ही मेरी पाँच इन्द्रियों की तृष्णा ही नष्ट (बूढ़ी) हुई, ऐसी स्थिति में संसार से मैं कैसे पार हो पाऊँगा।
आपसे अपना चरित्र क्या कहँ मुहा सकीयं चरिदं तवग्गे, जंपेमि सव्वण्ह! विमोहिदो । तियालगोयर-तुदीयणाणे, सव्वं विभादि करुणाणिहाण!18॥
अन्वयार्थ-(सव्वण्हू) हे सर्वज्ञ! (विमोहिदो) विमोहित हुआ (हं) मैं (मुहा) व्यर्थ ही (तवग्गे) आपके सामने (सकीयं चरिदं) स्वकीय चरित्र (जंपेमि) कहता हूँ [क्योंकि] (करुणा णिहाण) हे करुणा निधान! (तियालगोयर-तुदीयणाणे) त्रिकालगोचर आपके ज्ञान में (सव्वं विभादि) सब प्रतिभासित होता है। 328 :: सुनील प्राकृत समग्र