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अर्थ-हे सर्वज्ञ! मैं विमोहित हुआ व्यर्थ ही आपके सामने अपना चरित्र कहता हूँ, क्योंकि हे करुणा निधान! त्रिकालगोचर आपके ज्ञान में सभी कुछ स्पष्ट झलकता है।
आप ही रक्षा करो कोहि भावेहि णिपीडिदोहं, भवे-भवे दुक्ख-परंपराए। विभो! णिगोदादि दुहं च भुत्तं, हत्थावलंबं दच्चा य रक्ख9॥
अन्वयार्थ-(देव) हे देव! (हं) मैं (कूरेहिं भावेहिं) क्रूर भावों के कारण (भवे-भवे दुक्ख परंपराए) भव भव में दुःख परंपरा से (णिपीडितो) पीड़ित हूँ (णिगोदादि दुहं च भुत्तं) और मैंने निगोदादि दुःख भोगे हैं (अब आप) (हत्थावलंबं दच्चा य रक्ख) हस्तावलंबन देकर रक्षा करें।
अर्थ-हे देव! मैं क्रूर भावों के कारण भव भव में दुःख परंपरा से पीड़ित हूँ और मैंने निगोदादि पर्याय के दुःख भी भोगे हैं अब आप ही हस्तावलंबन देकर रक्षा करें।
मैं निजात्मशुद्धि चाहता हूँ अहं ण जाचेमि देविंदभोगं, णाइंदसोक्खं ण य पत्थयामि। णरिंदरजं च ण भावयामि, णियप्पसुद्धिं भयवं भजामि ॥20॥
अन्वयार्थ-(भयवं) हे भगवन् ! (अहं) मैं (देविंदभोगं) देवेन्द्र के भोग (ण . जाचेमि) नहीं मांगता हूँ (णाइंद सोक्खं) नागेन्द्र के सुख (णो पत्थयामि) नहीं प्रार्थता हूँ (ण य) और न ही (णरिंदरजं ) नरेन्द्र के राज्य की (भावयामि) भावना करता हूँ [अपितु] (णियप्पसुद्धिं भजामि) निजात्मा की शुद्धि चाहता हूँ।
___ अर्थ-हे भगवन्! मैं आपसे देवेन्द्र के भोग नहीं मांगता हूँ, नागेन्द्र के सुख की प्रार्थना नहीं करता हूँ और न ही चक्रवर्तित्व प्राप्ति की भावना करता हूँ अपितु निजात्मशुद्धि की वांछा करता हूँ।
व्यवहार भावना सव्वेसु जीवेसु य मित्तीभावो, पमोदभावो हि गुणाहिगेसु। दीणेसु कारुण्ण होदु य देव! मज्झत्थभावो पडिकूलवित्ते ॥21॥
अन्वयार्थ-(देव) हे देव! मेरा (सव्वेसु जीवेसु य मित्तीभावो) सभी जीवों में मैत्रीभाव (गुणाहिगेसु) गुणाधिकों में (पमोदभावो) प्रमोदभाव (दीणेसु कारुण्ण) दीनों में करुणाभाव (य) और (पडिकूलवित्ती) प्रतिकूलवृत्ति वाले जीवों पर (मज्झत्थभावो) मध्यस्थभाव (होदु) होवे।
भावालोयणा :: 329