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(विदोसो) निर्दोष (कधं भविस्सामि) कैसे होऊँगा ।
अर्थ - और हे प्रभु ! मुख दूसरों के दोष कहने से, नेत्र परस्त्रियों के मुख वीक्षण से, मन दूसरों के अनिष्ट चिंतन से दोषपूर्ण है, ऐसी स्थिति में मैं निर्दोष कैसे होऊँगा ।
सुमार्ग में चित्त नहीं लगा
कुदेव- पूया हि मया कुधीए, कुसत्थसज्झाय - सदा - मणेण । सेवा किदा चावि कुसाहुवग्गो, दत्तं ण चित्तं च तहा सुमग्गे ॥10॥
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अन्वयार्थ – (जिणिंद !) हे जिनेन्द्र ! (मया कुधीए) मुझ कुबुद्धि ने (सदा मणेण) सदा मन से (कुदेव - पूया) कुदेव पूजन (कुसत्थसज्झाय) कुशास्त्र स्वाध्याय (च) और (कुसाहुवग्गोसेवा) कुसाधु वर्ग की सेवा को (चावि) भी (किदा) किया (किण्णु) किंतु . ( सुमग्गे) सुमार्ग में (चित्तं ण दत्तं ) चित्त नहीं दिया।
अर्थ – हे जिनेन्द्र ! मुझ कुबुद्धि ने सदा ही मनपूर्वक कुदेवों का पूजन, कुशास्त्रों (अशास्त्रों) का स्वाध्याय तथा कुसाधुओं की सेवा को भी किया है किंतु सुमार्ग में चित्त नहीं लगाया ।
भव-भव की कहानी
देहे ग वा विहवेसु लित्तं, चित्तं विचित्तं कलुसेहि जादं । भवे भवे वा भवरोग- वेज्ज! पावेमि दुक्खं णिरए जगम्मि ॥11 ॥
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अन्वयार्थ – (देहे गिहे वा विहवेसु लित्तं) देह गृह और विभव में लिप्त होकर (कलुसेहि) कलुषताओं से (चित्तं) चित्त (विचित्तं) विचित्र (जादं) हो गया है [ इसीलिए ] ( भवरोग वेज्जं ) हे भवरोग वैद्य ! ( भवे भवे) भव-भव में (जगम्मि णिरए) संसार रूपी नरक में (दुक्खं) दुःखों को (पावेमि) पा रहा हूँ।
अर्थ - शरीर, घर-परिवार और वैभव-समृद्धि में लिप्त होकर कलुषताओं से मेरा चित्त विचित्र हो गया है इसीलिए हे भवरोग के वैद्य के समान जिनेश्वर ! मैं भव-भव में संसार रूपी नरक में दुःखों को पा रहा हूँ ।
प्रभुदर्शन में चित्त नहीं रमा
सीमंतणीए य णेत्तेण बिद्धं, तीए ज्ज होदि विउलं णिमग्गं ।
तहा जिणंद ! तव दंसणेसु, अज्जावि चित्तं हि मग्गं ण जादं ॥ 12 ॥
अन्वयार्थ – (जिणिंद!) हे जिनेन्द्र ! (सीमंतणीए णेत्तेण विद्धं) स्त्री के नेत्रों
से बिंधा हुआ (चित्तं) चित्त (तीए ज्ज) उसमें ही (विउलं) विपुलता से ( णिमग्गो) निमग्न होता है [ किन्तु ] ( तहा) उस प्रकार ( तव दंसणेसु) आपके दर्शन में
326 :: सुनील प्राकृत समग्र