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________________ नहीं प्राप्त हुआ (पावं किदं) पाप किए (च) और (तस्स फलं भुत्तं) उनका फल भोगा (इस तरह) (ममं) मेरा (जम्म) जन्म (णिप्फलमेव) निष्फल ही (गदं) गया। अर्थ-हे विभु! यहाँ मैंने कुछ भी पुण्य नहीं किया इसलिए श्रेष्ठ सुख भी प्राप्त नहीं हुआ, पाप किया और उसका फल भोगा; इस तरह मेरा जन्म निष्फल ही गया। सुकृत नहीं किए मैंने दाणं ण दिण्णं ण तवं हि तत्तं, ण सत्थसज्झायरदो भवो हं। जिणिंद-पूयं वि किदा ण देव! सब्भावजुत्तं हि मणं च णत्थि।। । अन्वयार्थ-[मैंने] (दाणं ण दिण्णं) दान नहीं दिया (तवं ण तत्तं) तप नहीं तपा, (ण सत्थ सज्झाय रदो भवो हं) न ही मैं शास्त्र स्वाध्याय में रत हुआ हूँ (जिणिदं पूयं वि ण किदा) न जिनेन्द्र पूजा की (च) और (देव) हे देव! (मणं) मन (सब्भावजुत्तं णत्थि) सद्भावयुक्त नहीं है। अर्थ-हे देव! मैंने दान नहीं दिया, तप भी नहीं तपा, न शास्त्र स्वाध्याय में मैं लीन रहता हूँ, मैंने न जिनेन्द्र पूजा की और न ही मेरा मन विनय संयुक्त है। कुकृत्यों की आलोचना मिच्छोवदेसा सवणेण सोत्तं, देहो मदीयो परपीडणेण। एइंदियादि-दलणेण पादा, जादा कुकिच्चेण करा सदोसा ॥8॥ अन्वयार्थ-[हे प्रभु!] (मिच्छोवदेसा सवणेण) मिथ्योपदेश के श्रवण से (मदीयो) मेरे (सोत्तं) कान (परपीडणेण) पर पीड़न से (देहो) शरीर (एइंदियादि दलणेण) एकेन्द्रियादि के दलने से (पादा) पैर (और) (कुकिच्चेण) कुकृत्य से (करा) हाथ (सदोसा) दूषित (जादा) हुए हैं। अर्थ-हे प्रभो! मिथ्या उपदेश सुनने से मेरे कान, पर पीड़न अर्थात् अन्य जीवों को दु:खी करने से मेरा शरीर, एकेन्द्रिय आदि जीवों को कुचल डालने से मेरे पैर और अनेक अकरणीय कार्य करने से मेरे हाथ दूषित (सदोष) हुए हैं। और भी कहते हैं मुहं सदोसं परदूसणेण, णेत्तं परत्थी-मुह-वीक्खणेण। चित्तं पराणिट्ठ-विचिंतणेण, कधं भविस्सामि विह्ये! विदोसो॥१॥ अन्वयार्थ-(विभु!) हे प्रभु! (मुहं) मुख (परदूसणेण) परदोष कहने से (णेत्तं) नेत्र (परत्थी मुह-वीक्खणेण) परस्त्री के मुख वीक्षण से (चित्तं) चित्त (पराणिट्ठविचिंतणेण) पर का अनिष्ट चिंतन से (सदोस) सदोष है [तब] भावालोयणा :: 325
SR No.032393
Book TitleSunil Prakrit Samagra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorUdaychandra Jain, Damodar Shastri, Mahendrakumar Jain
PublisherBharatiya Gyanpith
Publication Year2016
Total Pages412
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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