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अन्वयार्थ – [ जैसे ] ( अदिचंचलो) अतिचंचल ( लघू वि बालो) छोटा बालक भी (मादा समीवे) माता के समीप (दोसे) दोषों को (कहेदि) कहता है (तहेव) वैसे ही ( भयवं) हे भगवान! (मणे ठिदं) मन में स्थित ( सच्चं ) सत्य को (साणुणयं) अनुनय पूर्वक (तवग्गे) आपके सामने (कहेमि) कहता हूँ ।
अर्थ - हे भगवन् ! जैसे कोई अत्यन्त चपल छोटा बालक माता के पास सभी दोष कह देता है, वैसे ही मैं भी मन में स्थित सत्य बात को आपके सामने विनय पूर्वक कहता हूँ ।
मैं कषायों से पीड़ित हूँ
कोहग्गणा अइतिव्वेण दड्ढो, माणेण गहिदो कूरेण हं च । बद्धो य मायाइ भयंकराए, दड्ढो य लोहेण भुयंगमेण ॥14 ॥
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अन्वयार्थ – [ हे भगवन् ] (हं) मैं (अइतिव्वेण) अतितीव्र (कोहग्गिणा) क्रोधाग्नि से (दड्ढो) दग्ध हूँ ( णिच्चं) नित्य ( कूरेण माणेण) क्रूर मान से (गहिदं ) ग्रहीत हूँ (भयंकराए मायाए) भयंकर माया से (बद्धं) बंधा हूँ (च) तथा (लोहेण भुयंगमेण) लोभरूपी सर्प से (दंठो) डसा गया हूँ।
अर्थ – हे भगवन्! मैं अत्यन्त तीव्र क्रोधरूपी अग्नि से दग्ध हूँ, नित्य ही क्रूर मान से गृहीत हूँ, भयंकर माया से बंधा हूँ तथा भयंकर लोभ रूपी सर्प से काटा (डसा) गया हूँ।
हिंसादि पापों से भवभ्रमण
हिंसादिपावेसु मणाणुरत्तो, मिच्छत्तचागो ण किदो मणेण । पंचक्खलोहो ण मए विमुत्तो, तदो तिलोए भयवं ! भमामि ॥5॥
अन्यवयार्थ – (हिंसादि पावेसु मणाणुरत्तो) हिंसादि पापों में मन अनुरक्त है (मिच्छत्त चागो) मिथ्यात्व त्याग (मणेण) मन से (ण किदो) नहीं किया है (ण) न (पंचक्ख लोहो) पंचेन्द्रियों के लोभ को (मए) मैंने (विमुत्तो) छोड़ा है (तदो) इसीलिए (भयवं) हे भगवन्! (तिलोए) त्रिलोक में (भमामि) भ्रमण करता हूँ।
अर्थ - हे भगवन! मेरा मन हिंसादि पापों में अनुरक्त है, मन से मैंने मिथ्यात्व का त्याग नहीं किया और न ही पंचेन्द्रियों के लोभ को भी छोड़ा, इसीलिए मैं ऊर्ध्वअधो व मध्य लोक रूप तीन लोक में परिभ्रमण कर रहा हूँ ।
पाप किए सो फल भोगा
किदं विहो ! अत्थ पुण्णं ण किंचि, तदो हि लोए सुसुहं ण लद्धं ।
पावं किदं तस्स फलं च भुत्तं गदं ममं णिष्फलमेव जम्मं ॥6॥
अन्वयार्थ — (विहो) हे विभु ! (अत्थ) यहाँ (मैंने) (किंचि) कुछ भी (पुण्णं) पुण्य (ण किदं ) नहीं किया (तदो हि) इसलिए ही (सुसुहं ण लद्धं) श्रेष्ठ सुख
324 :: सुनील प्राकृत समग्र