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आत्मध्यान से दु:खों का नाश सरित्ता अप्परूवं च, दुक्खं पापं च णस्सदे।
जहा चंदोदए तावो, तिमिरो य पणट्ठदे॥14॥ अन्वयार्थ-(अप्परूवं सरित्ता) आत्मस्वरूप का स्मरण करने पर (दुक्खं पापं च णस्सदे) दु:ख व पाप नष्ट हो जाते हैं (जहा) जैसे (चंदोदए) चंद्रोदय होने पर (तावो) ताप (य) और (तिमिरो) तिमिर (पणट्ठदे) प्रनष्ट हो जाता है।
भावार्थ-आत्मस्वरूप का स्मरण करने पर दुःख व पाप उसी तरह नष्ट हो' जाते हैं, जिस तरह चंद्रमा के उदित होने पर संताप और अंधकार नष्ट हो जाता है।
संसार सागर सूख जाता है अप्प-दव्वस्स झाणादो, दिग्घ-संसार-सागरो।
णीसंसयं हवे सुट्ठ, जीवाणं चुलुगोपमो15॥ अन्वयार्थ-(अप्प-दव्वस्स झाणादो) आत्मद्रव्य के ध्यान से (जीवाणं ) जीवों का (दिग्ध संसार सागरो) दीर्घ संसार सागर (णीसंसयं) नि:संशय (चुलुगोपमो) चुलुक प्रमाण रह जाता है।
भावार्थ-आत्मस्वरूप का ध्यान करने से जीवों का संसाररूपी सागर सूखकर चुलुक (चुल्लू) प्रमाण रह जाता है।
आत्मतत्त्व को भूलने वाले मूढ़ हैं । अप्पदव्वे समीवत्थे, जो परदव्वे मुज्झदि।
णाणज्झाण-विहीणो सो, मूढो अस्थि हिगदहो॥6॥ अन्वयार्थ-(अप्पदव्वे समीवत्थे) आत्मद्रव्य के समीप होने पर (जो परदव्वे मुज्झदि) जो परद्रव्य में मोहित होता है (णाणज्झाण-विहीणो सो) ज्ञान-ध्यान से विहीन वह (मूढ) मूढ़ (हि) वस्तुतः (गद्दहो) गधा (अत्थि) है।
भावार्थ-आत्मद्रव्य के समीप होने पर भी उसे न जानकर जो परद्रव्यों में ही मूर्च्छित रहता है, वह ज्ञान-ध्यान से विहीन मूढ़ गधे के समान है।
परद्रव्य विरक्त सुखी होता है परदव्वे णिरासत्तो, झाणब्भासरदो सुही।
विभावभावं णासित्ता, सो पसू वि सुहायदे॥17॥ अन्वयार्थ-(सुही) जो सुधी (परदव्वे हिरासत्तो) परद्रव्य में निरासक्त (झाणब्भासरदो) ध्यानाभ्यास रत है (सो पसू वि) वह पशु भी (विभावभावं णासित्ता) विभावभाव नाशकर (सुहायदे) सुखी होता है।
णियप्पज्झाण-सारो :: 309