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अन्वयार्थ-(छुहा-माण-भयक्कोहा) क्षुधा मान भय क्रोध (माया लोहा य मूढदा) माया, लोभ और मूढ़ता (णिद्दा कामो ईसादि य) तथा निद्रा, काम व ईर्ष्या आदि दोष (अप्प-चिंतणे) आत्म चिंतन करने पर (णस्संति) नष्ट हो जाते हैं।
भावार्थ-क्षुधा, मान, भय, क्रोध, माया, लोभ मूढ़ता, निद्रा, काम, तथा ईष्या आदि दोष आत्म चिंतन करने पर नष्ट हो जाते हैं।
आत्मानुभवी वंदनीय है चिम्मयं केवलं सुद्धं, णिच्चाणंदं णिरंजणं।
जो झाएदि णियप्पं हि, सो मुत्त व्व य वंदिमो॥11॥ अन्वयार्थ-(चिम्मयं केवलं सुद्ध) चिन्मय, केवल, शद्ध (णिच्चाणंदं णिरंजणं) नित्यानंद निरंजन (णियप्पं हि) निजात्मा को ही (जो झाएदि) जो ध्याता है (सो मुत्त व्व य) वह मुक्त के समान है (वंदिमो) उसे हम नमस्कार करते हैं।
भावार्थ-जो चिन्मय, केवल, शुद्ध, नित्यानंद, निरंजन, निजात्म को ही ध्याता है, वह मुक्त के समान है, उसे हम वंदन करते हैं।
__शुद्धात्मा के स्मरण से शुद्धि सुद्धोहं चिंतदि णिच्च, मोत्तूण परदव्वयं ।
कम्म-णोकम्म-णासिता, पप्पोदि सुह-मप्पगं॥12॥ अन्वयार्थ-(परदव्वयं ) परद्रव्यों को (मोत्तूण) छोड़कर (सुद्धोहं चिंतदि णिच्चं) जो नित्य ही मैं शुद्ध हूँ ऐसा चिंतन करता है (वह) (कम्म-णोकम्मणासित्ता) कर्म-नोकर्मों का नाशकर (पप्पोदि सुह-मप्पगं) आत्मीय सुख को पाता है।
भावार्थ-परद्रव्यों से ममत्व छोड़कर जो नित्य ही मैं शुद्ध हूँ ऐसा चिंतन करता है वह कर्म-नौकर्म का नाशकर आत्मीय सुख को पाता है।
हर दशा में आत्मचिंतन सुहे दुक्खे महारोगे, छुहादीणं उवद्दवे।
उवसग्गे य दुब्भिक्खे, णाणी झाएदि अप्पणं ॥13॥ अन्वयार्थ-(सुहे दुक्खे महारोगे) सुख में, दुःख में, महाव्याधि होने पर (छुहादीणं उवद्दवे) क्षुधा आदि का उपद्रव होने पर (उवसग्गे य दुब्भिक्खे) उपसर्ग तथा दुर्भिक्ष होने पर (णाणी झाएदि अप्पणं) ज्ञानी आत्मा को ध्याता है।
भावार्थ-सुख में, दुःख में, महारोग होने पर क्षुधा आदि का उपद्रव होने पर, उपसर्ग तथा दुर्भिक्ष होने पर ज्ञानी आत्मा को ध्याता है।
308 :: सुनील प्राकृत समग्र