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भावार्थ-जो सुधी परद्रव्य में निरासक्त, ध्यानाभ्यास में लीन है, वह पशु भी हो तो भी विभावभावों का क्रमशः नाशकर सुखी होता है।
__ क्लेश से बंध, विशुद्धि से मोक्ष किलितु कम्म-बंधो य, असुहो दुहदायगो।
विसोहीए खओ तेसिं, बंधो वा सुहकम्मणं ॥18॥ अन्वयार्थ-(किलिठे) संक्लेश होने पर (असुहो दुहदायगो) अशुभ दुःखदायी(कम्म-बंधो)कर्म बंध होता है (य) और (विसोहीए खयं तेसिं) विशुद्धि से उनका क्षय (वा) अथवा(सुहकम्मणं बंधो) शुभकर्मों का बंध होता है।
भावार्थ-परिणामों में संक्लेश होने पर अशुभ दुःखदायी कर्मबंध होता है, जबकि शुद्ध विशुद्धि से कर्मों का क्षय तथा शुभ विशुद्धि से शुभकर्मों का बंध होता है।
विशुद्धि के लोभी क्या करते हैं विसोही सेवणासत्ता, वसंति गिरि-कोडरे।
चत्ता अणोवमं रज्जं, सुहाणि धण-धण्णयं ॥19॥ अन्वयार्थ-(विसोही सेवणासत्ता) विशुद्धि सेवनासक्त महापुरुष (अणोवमं रजं) अनुपम राज्य (सुहाणि) सुख (धण-धण्णयं) धन धान्य आदि को (चत्ता) छोड़कर (गिरि-कोडरे) गिरि-कोटर में निवास करते हैं।
भावार्थ-विशुद्धि सेवनासक्त महापुरुष अनुपम राज्यसुख, धन-धान्य आदि को छोड़कर गिरि-कोटर में निवास करते हैं।
आत्मध्यान से परमानंद सो कोई परमाणंदो, अप्पझाणेण होदि हि।
जेण णासेदि कम्माणि, सेठं सुहं च जायदे॥20॥ अन्वयार्थ-(सो कोई परमाणंदो) वह कोई परमानंद (अप्पझाणेण होदि हि) आत्मध्यान से होता है (जेण णासदि कम्माणि) जिससे दुष्कर्मों का नाश (च) और (सेठं सुहं जायदे) श्रेष्ठ सुख होता है।
भावार्थ-आत्मध्यान से वह कोई परमानंद होता है, जिससे दुष्कर्मों का नाश और श्रेष्ठ आत्मीय सुख उत्पन्न होता है।
__मूढ़ सुखाभास में जीते हैं साहीणं च सुहं णाणं, हवे अत्तस्स चिंतणे। मूढा इच्छंति तं मुत्ता, सुहाभासं च दुक्खदं ॥21॥
310 :: सुनील प्राकृत समग्र