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परोपकारिता [ये] (धम्मियस्स) धर्मात्मा के (लक्खणं) लक्षण हैं।
भावार्थ-सत्यवादिता, निर्लोभता, निर्मलता, दयाभावना, दानशीलता, त्यागमय जीवन, संयम का परिपालन, यथायोग्य तप और परोपकार करने की सतत प्रवृत्ति ही धर्मात्माजनों के लक्षण हैं, न कि बाह्य वेषभूषा, प्रदर्शन और आडम्बर।
दुःखों से उद्धार करने वाले । णाणादुहादु उद्धत्तुं, लोयम्मि को समत्थो हि।
मोत्तूण जिणधम्मं च, जिणदेवं च सग्गुरुं ॥31॥ अन्वयार्थ-(लोयम्हि) लोक में, (जिणदेवं) जिनेन्द्र भगवान (सग्गुरुं) सच्चे गुरु (च) और (जिणधम्म) जैनधर्म को (मोत्तूण) छोड़कर (णाणादुहादु उद्धत्तुं) विविध दुःखों से उद्धार करने के लिए (हि) वस्तुतः (को) कौन (समत्थो) समर्थ हैं ?
भावार्थ-इस संसार में वीतरागी जिनेन्द्र भगवान, वीतरागी गुरु और जैनधर्म को छोड़कर विविध दु:खों से दु:खी होते हुए जीवों का उद्धार करने में वस्तुतः कौन समर्थ है? अर्थात् कोई नहीं।
जिनशासन के बिना दु:ख विगदेअणंतकाले, जीवेण भमिदं भवे।
काणि दुक्खाणिणो पत्ता, विणा जिणिंद-सासणं॥32॥ अन्वयार्थ-(विगदेअणंतकाले) बीते हुए अनंतकाल में (भवे) संसार में (भमिदं) घूमते हुए (जीवेण) जीव ने (जिणिंद-सासणं विणा) जिनेन्द्रशासन के बिना (काणि दुक्खाणि) किन दुःखों को (णो) नहीं (पत्ता) प्राप्त किया?
भावार्थ-अनादि काल से संसार में भटकते हुए इस जीव ने जिनेन्द्र भगवान के शासन को जैनधर्म को नहीं पाकर संसार के कौन से भयंकर दु:ख नहीं भोगे? अर्थात् जिनेन्द्रशासन को प्राप्त किए बिना इस जीव ने सभी प्रकार के सभी दुःख भोगे हैं।
जिनशासन से पापों का नाश जिणिंदस्स मदं पत्ता, णिच्चं जो तम्मि चेट्ठदे।
संपुण्णं किब्बिसं चत्ता, सुट्ठाणं सो हि गच्छदि ॥33॥ अन्वयार्थ-(जिणिंदस्स मदं पत्ता) जिनेन्द्र के मत को पाकर (जो) जो (तम्मि) उसमें ही (चेट्ठदे) चेष्टा करता है (सो) वह (संपुण्णं) सम्पूर्ण (किब्बिसं) पाप को (चत्ता) छोड़कर (सुट्ठाणं) सुस्थान को (हि) निश्चित ही (गच्छदि) जाता
णीदि-संगहो :: 139